आर.डी. अग्रवाल ‘प्रेमी’
किसी राज्य में यज्ञ हेतु राजा एक बकरे की बलि चढ़ाने जा रहा था। उसी समय उधर से भगवान बुद्ध गुजर रहे थे। राजा को ऐसा करते देख वह राजा से बोले, ‘ठहरो, राजन! यह क्या कर रहे हो/ इस बेजान बकरे की भेंट क्यों चढ़ा रहे हो/ आखिर किसलिए/’ राजा ने कहा, ‘इसकी बलि चढ़ाने से मुझे बहुत पुण्य प्राप्त होगा। और यह हमारी प्रथा भी है।’
राजा की इस बात पर बुद्ध ने कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो मुझे भेंट चढ़ा दो। तुम्हें और ज्यादा पुण्य मिलेगा। बकरे के मुकाबले एक मनुष्य की बलि से तुम्हारे भगवान और खुश होंगे।’ यह सुनकर राजा थोड़ा डरा। क्योंकि बकरे की बलि चढ़ाने में कोई हर्जा नहीं था। बकरे की तरफ से बोलने वाला कोई होगा, ऐसा राजा सोच नहीं सकता था। मगर, बुद्ध की बलि चढ़ाने की बात मन में आते ही राजा कांप गया। उसने कहा,‘अरे, नहीं महाराज! आप ऐसी बात न करें।
इस बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकता। बकरे की बात अलग है। ऐसा तो सदियों से होता आया है। और फिर इसमें किसी का नुकसान भी तो नहीं। बकरे का भी फायदा ही है। वह सीधा स्वर्ग चला जाएगा।’ बुद्ध बोले,‘यह तो बहुत ही अच्छा है, मैं स्वर्ग की तलाश कर रहा हूं, तुम मुझे बलि चढ़ा दो और मुझे स्वर्ग भेज दो। या फिर ऐसा क्यों नहीं करते कि तुम अपने माता-पिता को ही स्वर्ग भेज दो। और खुद को ही क्यों रोके हुए हो/ जब स्वर्ग जाने की ऐसी सरल व सुगम तरकीब मिल गई है तो काट लो गर्दन।
इस बेचारे बेजान बकरे को क्यों स्वर्ग में भेज रहे हो/ यह शायद स्वर्ग में जाना भी न चाहता हो। बकरे को खुद ही चुनने दो कि उसे कहां जाना है।’ राजा के सामने अपने तर्कों की पोल खुल चुकी थी। वह महात्मा बुद्ध के चरणों पर झुक कर बोला, ‘महाराज आपने मेरी आंखों पर पड़े अज्ञान के परदे को हटाकर मेरा जो उपकार किया है वह मैं भूल नहीं सकता।’
किसी राज्य में यज्ञ हेतु राजा एक बकरे की बलि चढ़ाने जा रहा था। उसी समय उधर से भगवान बुद्ध गुजर रहे थे। राजा को ऐसा करते देख वह राजा से बोले, ‘ठहरो, राजन! यह क्या कर रहे हो/ इस बेजान बकरे की भेंट क्यों चढ़ा रहे हो/ आखिर किसलिए/’ राजा ने कहा, ‘इसकी बलि चढ़ाने से मुझे बहुत पुण्य प्राप्त होगा। और यह हमारी प्रथा भी है।’
राजा की इस बात पर बुद्ध ने कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो मुझे भेंट चढ़ा दो। तुम्हें और ज्यादा पुण्य मिलेगा। बकरे के मुकाबले एक मनुष्य की बलि से तुम्हारे भगवान और खुश होंगे।’ यह सुनकर राजा थोड़ा डरा। क्योंकि बकरे की बलि चढ़ाने में कोई हर्जा नहीं था। बकरे की तरफ से बोलने वाला कोई होगा, ऐसा राजा सोच नहीं सकता था। मगर, बुद्ध की बलि चढ़ाने की बात मन में आते ही राजा कांप गया। उसने कहा,‘अरे, नहीं महाराज! आप ऐसी बात न करें।
इस बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकता। बकरे की बात अलग है। ऐसा तो सदियों से होता आया है। और फिर इसमें किसी का नुकसान भी तो नहीं। बकरे का भी फायदा ही है। वह सीधा स्वर्ग चला जाएगा।’ बुद्ध बोले,‘यह तो बहुत ही अच्छा है, मैं स्वर्ग की तलाश कर रहा हूं, तुम मुझे बलि चढ़ा दो और मुझे स्वर्ग भेज दो। या फिर ऐसा क्यों नहीं करते कि तुम अपने माता-पिता को ही स्वर्ग भेज दो। और खुद को ही क्यों रोके हुए हो/ जब स्वर्ग जाने की ऐसी सरल व सुगम तरकीब मिल गई है तो काट लो गर्दन।
इस बेचारे बेजान बकरे को क्यों स्वर्ग में भेज रहे हो/ यह शायद स्वर्ग में जाना भी न चाहता हो। बकरे को खुद ही चुनने दो कि उसे कहां जाना है।’ राजा के सामने अपने तर्कों की पोल खुल चुकी थी। वह महात्मा बुद्ध के चरणों पर झुक कर बोला, ‘महाराज आपने मेरी आंखों पर पड़े अज्ञान के परदे को हटाकर मेरा जो उपकार किया है वह मैं भूल नहीं सकता।’