प्रसिद्ध सूफी संत रबिया रहमतुल्लाई का जन्म इराक के बसरा नामक नगर में एक अत्यंत गरीब परिवार में हुआ था। रबिया के सिर से उसके माता-पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। फलस्वरुप रबिया का बचपन माता-पिता के प्यार से वंचित ही रहा। माता पिता के लाड़-प्यार के अभाव की वजह से रबिया सदा उदास रहती थी। उसके घर के निकट ही एक कुटिया में उच्चकोटि के संत रहते थे। रबिया की उदासी देख संत का हृदय द्रवित हो गया।
संत ने रबिया से कहा 'बेटी, परमात्मा बड़ा कृपानिधान है, सुबह-शाम इस कुटिया में ईश्वर की महिमा का सत्संग होता है, दूर-दूर से लोग मन की शांति के लिए सत्संग सुनने आते हैं। तुम भी आ जाया करो, हो सकता है मन की उदासी दूर करने का कोई सूत्र मिल जाए।' अपनी उदासी दूर करने के लिए रबिया भी संत की कुटिया में सत्संग सुनने जाने लगी। वहां जाने पर उसके मन को बड़ी शांति मिलती थी। परमपिता परमात्मा के आनंदस्वरुप का वर्णन सुनकर रबिया की उदासी वाष्प बनकर उड़ने लगी।
अब वह जीवन निर्वाह के लिए एक साहूकार के घर कामकाज करती और शेष समय ईश्वर की याद में लीन रहती। इस प्रकार दिन बीतते गए और रबिया में सुमिरन, ध्यान और ईश्वर प्रेम में भी दृढ़ता आती गई। रबिया को अपने सांसारिक जीवन में बहुत दारुण कष्ट झेलने पड़े, किंतु उन कष्टों को भी उसने ईश्वर का प्रसाद समझकर सहन किया। रबिया के विचारों में ईश्वर-कृपा से पूर्ण परिवर्तन हो गया। वह प्रार्थना कष्टों की निवृत्ति के लिए नहीं, अपितु ईश्वर की कृपाओं के गुणगान के लिए करती थी। वह प्रार्थना करती, 'हे, मेरे कृपालु प्रभो! तुमने मुझे संसार की विषय-वासनाओं की अग्नि से निकाल कर अपनी पावन भक्ति में लगाया। मेरा रोम-रोम तुम्हारा कृतज्ञ है।'
संकलन: विनोद कुमार यादव
संत ने रबिया से कहा 'बेटी, परमात्मा बड़ा कृपानिधान है, सुबह-शाम इस कुटिया में ईश्वर की महिमा का सत्संग होता है, दूर-दूर से लोग मन की शांति के लिए सत्संग सुनने आते हैं। तुम भी आ जाया करो, हो सकता है मन की उदासी दूर करने का कोई सूत्र मिल जाए।' अपनी उदासी दूर करने के लिए रबिया भी संत की कुटिया में सत्संग सुनने जाने लगी। वहां जाने पर उसके मन को बड़ी शांति मिलती थी। परमपिता परमात्मा के आनंदस्वरुप का वर्णन सुनकर रबिया की उदासी वाष्प बनकर उड़ने लगी।
अब वह जीवन निर्वाह के लिए एक साहूकार के घर कामकाज करती और शेष समय ईश्वर की याद में लीन रहती। इस प्रकार दिन बीतते गए और रबिया में सुमिरन, ध्यान और ईश्वर प्रेम में भी दृढ़ता आती गई। रबिया को अपने सांसारिक जीवन में बहुत दारुण कष्ट झेलने पड़े, किंतु उन कष्टों को भी उसने ईश्वर का प्रसाद समझकर सहन किया। रबिया के विचारों में ईश्वर-कृपा से पूर्ण परिवर्तन हो गया। वह प्रार्थना कष्टों की निवृत्ति के लिए नहीं, अपितु ईश्वर की कृपाओं के गुणगान के लिए करती थी। वह प्रार्थना करती, 'हे, मेरे कृपालु प्रभो! तुमने मुझे संसार की विषय-वासनाओं की अग्नि से निकाल कर अपनी पावन भक्ति में लगाया। मेरा रोम-रोम तुम्हारा कृतज्ञ है।'
संकलन: विनोद कुमार यादव