मद्रास सुब्बालक्ष्मी के लिए भाग्यशाली साबित हुआ। वहां से संगीत के क्षेत्र में उन्हें पहचान मिली। वहीं पर उनको एक मार्गदर्शक और आदर्श पति मिला। हालांकि विवाह से पहले सन 1938 में ही वह फिल्मों की ओर अपने कदम बढ़ा चुकी थीं। उनकी पहली फिल्म ‘सेवासदनम्’ थी। इस फिल्म की सफलता के बाद उन्होंने सन 1940 में ‘शकुंतलई’ में शकुंतला की मुख्य भूमिका निभाई। मगर इस बीच अचानक उनके पति की नौकरी छूट गई और घर का खर्च चलाना कठिन लगने लगा।
ऐसे में सुब्बालक्ष्मी बोलीं, ‘हम दोनों मिलकर महीने में सौ रुपए तो कमा ही सकते हैं।’ तब सौ रुपए बहुत होते थे। पति सदाशिवम ऐसी हिम्मतवाली पत्नी पाकर निहाल हो गए। उन्होंने सुब्बालक्ष्मी को देशभक्ति के गीत और भजन गाने की प्रेरणा दी। सुब्बालक्ष्मी उनके इन विचारों से काफी प्रभावित हुईं। सदाशिवम स्वतंत्रता आंदोलन में समय-समय पर गांधी, नेहरू और बाकी नेताओं से मिलते रहते थे। सन 1941 में वह सुब्बालक्ष्मी को गांधीजी से मिलवाने के लिए वर्धा आश्रम ले गए। गांधीजी पहले ही सुब्बलक्ष्मी की ख्याति के बारे में सुन चुके थे।
मगर वहां एक प्रॉब्लम थी। सुब्बालक्ष्मी ने कभी हिंदी में नहीं गाया था। भजन गांधीजी का प्रिय था, जिसके बोल थे, ‘हरि तुम हरो जन की पीर’। मामला गांधीजी तक पहुंचा तो वह बोले, ‘अगर आप गाने के बजाय सिर्फ पढ़ देंगी, तो भी वह किसी और के गाने से बेहतर होगा’। जाहिर है, गांधी के पसंदीदा भजन को सुब्बालक्ष्मी ने गाया और गांधीजी आत्मविभोर होकर उनको सुनते रहे। आजादी के आंदोलन में सुब्बालक्ष्मी यहीं नहीं रुकीं। इस घटना के तीन साल बाद उन्होंने कस्तूरबा मेमोरियल ट्रस्ट के लिए फंड इकट्ठा करने के उद्देश्य से पांच संगीत समारोह किए, और वहां से मिला सारा धन आजादी की लड़ाई में दान कर दिया। देश की आजादी की लड़ाई सुब्बालक्ष्मी की सुरों से भी सजी हुई है।
संकलन : रवि ठाकुर