स्वामी रामतीर्थ उन दिनों अमेरिका में थे। एक दिन उनके पास एक महिला आई। वह आ तो गई थी, पर कुछ बोल पाने में असमर्थ थी। गहरे दुख ने उसकी आवाज को जकड़ रखा था। काफी देर वह यूं ही बैठी रही। इन क्षणों में रामतीर्थ भी उससे कुछ बोले नहीं, बस करुणापूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखते रहे।
उनकी करुणापूर्ण दृष्टि उस महिला को छू गई। उसका जमा हुआ विषाद पिघल उठा। दुख की परत आंसुओं में घुलने लगी। कुछ देर रोती ही रही। स्वामी रामतीर्थ उसे स्नेह भाव से निहारे जा रहे थे। उनके स्नेह की संजीवनी से वह जैसे-तैसे बोलने लायक हुई। भरे गले से उसने अपनी कथा सुनाई।
कथा का सार इतना ही था कि वह प्रेम में छली गई थी। तन-मन-धन-जीवन, सब कुछ न्योछावर करने के बाद भी उसे धोखा मिला था। उसकी बातें सुनने के बाद रामतीर्थ बोले- ‘बहन, यहां हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार ही बर्ताव करता है। जिसके पास जितनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक क्षमता है, वह उसी के अनुसार बर्ताव करने के लिए विवश है।
जिनकी भावनाएं स्वार्थ एवं कुटिलता से भरी हैं, वे तो बस क्षमा के पात्र हैं।’ महिला का अगला प्रश्न था- ‘तब क्या जीवन में सच्चा प्रेम पाना असंभव है?’ स्वामी रामतीर्थ ने कहा, ‘सच्चा प्रेम मिलता है, पर उन्हें जो सच्चा प्रेम करना जानते हैं।’
महिला ने कहा, ‘मेरा प्रेम भी तो सच्चा था।’ रामतीर्थ बोले- ‘नहीं बहन, तुम्हारे प्रेम में स्वार्थ की मांग थी, उसमें किसी न किसी अंश में वासना भी घुली थी। सच्चा प्रेम तो सेवा, करुणा एवं श्रद्धा के रूप में ही प्रकट होता है।’ रामतीर्थ की बातों का अर्थ उसकी समझ में आ गया। वह समझ गई कि प्रेम केवल दिया जाता हैं, उसमें पाने की मांग नहीं होती। इसके बाद वह एक अस्पताल में नर्स बन गई।
संकलन: जय गोपाल शर्मा
उनकी करुणापूर्ण दृष्टि उस महिला को छू गई। उसका जमा हुआ विषाद पिघल उठा। दुख की परत आंसुओं में घुलने लगी। कुछ देर रोती ही रही। स्वामी रामतीर्थ उसे स्नेह भाव से निहारे जा रहे थे। उनके स्नेह की संजीवनी से वह जैसे-तैसे बोलने लायक हुई। भरे गले से उसने अपनी कथा सुनाई।
कथा का सार इतना ही था कि वह प्रेम में छली गई थी। तन-मन-धन-जीवन, सब कुछ न्योछावर करने के बाद भी उसे धोखा मिला था। उसकी बातें सुनने के बाद रामतीर्थ बोले- ‘बहन, यहां हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार ही बर्ताव करता है। जिसके पास जितनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक क्षमता है, वह उसी के अनुसार बर्ताव करने के लिए विवश है।
जिनकी भावनाएं स्वार्थ एवं कुटिलता से भरी हैं, वे तो बस क्षमा के पात्र हैं।’ महिला का अगला प्रश्न था- ‘तब क्या जीवन में सच्चा प्रेम पाना असंभव है?’ स्वामी रामतीर्थ ने कहा, ‘सच्चा प्रेम मिलता है, पर उन्हें जो सच्चा प्रेम करना जानते हैं।’
महिला ने कहा, ‘मेरा प्रेम भी तो सच्चा था।’ रामतीर्थ बोले- ‘नहीं बहन, तुम्हारे प्रेम में स्वार्थ की मांग थी, उसमें किसी न किसी अंश में वासना भी घुली थी। सच्चा प्रेम तो सेवा, करुणा एवं श्रद्धा के रूप में ही प्रकट होता है।’ रामतीर्थ की बातों का अर्थ उसकी समझ में आ गया। वह समझ गई कि प्रेम केवल दिया जाता हैं, उसमें पाने की मांग नहीं होती। इसके बाद वह एक अस्पताल में नर्स बन गई।
संकलन: जय गोपाल शर्मा