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ऐसे जन्मी यह कहावत 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'

महिला वहां से गंगा स्नान करने के लिए चली गई। जब वही महिला गंगा स्नान करके लौटी तो रैदास भक्त से फिर मिलने आई। वह काफी निराश और उदास थी। उस समय रैदास भजन कर रहे थे। उन्होंने भजन पूरा कर महिला से निराशा का कारण पूछा तो वह बोली...

नवभारत टाइम्स 11 Aug 2017, 8:21 am
भक्त रैदास का रहन-सहन गृहस्थ जीवन में रहने के बाद भी संतों जैसा ही था। पेशा था, जूते-चप्पल बनाना और उनकी मरम्मत करना। एक बार कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा-स्नान पर्व के समय बड़ी संख्या में लोग गंगाघाट की ओर जा रहे थे। लेकिन रैदास की तो दुनिया ही अलग थी। वह अपने काम में रमे रहते और मधुर स्वर से भजन गाया करते थे। एक महिला रैदास के पास अपनी चप्पल ठीक कराने आई तो उसने पूछा, ‘सब गंगा स्नान करने जा रहे हैं, भगतजी। मैं भी जा रही हूं। आप नहीं जाओेगे क्या?’ रैदास ने जूतों के ढेर की ओर इंगित करते हुए कहा, ‘यह देखो बहन, इतना सारा काम ले रखा है। समय पर सबको देना है। मैं तो यहीं अपना काम करता-करता गंगा मां के भाव दर्शन कर लूंगा।’
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ऐसे जन्मी यह कहावत 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'


महिला वहां से गंगा स्नान करने के लिए चली गई। जब वही महिला गंगा स्नान करके लौटी तो रैदास भक्त से फिर मिलने आई। वह काफी निराश और उदास थी। उस समय रैदास भजन कर रहे थे। उन्होंने भजन पूरा कर महिला से निराशा का कारण पूछा तो वह बोली, ‘गंगा की धारा में डुबकी लगा रही थी, न जाने कैसे सोने का कंगन पानी में ही छूट गया।’ महिला मन और भावों से बहुत साफ थी। उसे आभूषण खोने का गम सता रहा था। उसके दुख का असर चेहरे पर साफ दिख रहा था।

इस पर रैदास ने अपना हाथ पास में रखी कठौती (चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरा पात्र) में डाला और सोने के दो कंगन निकाल कर बोले, ‘देखो, कहीं यह तो नहीं?’ महिला की आंखें खुशी से चमक उठीं। वह बोली, ‘हां भगतजी! यही हैं मेरे कंगन, लेकिन ये तो बहती गंगा में गिर गए थे, यहां आपकी कठौती में कैसे? रैदास ने कहा, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा। मन को चंगा रखो तो जहां हो वहीं तीर्थस्नान का लाभ मिल जाएगा।’ तभी से यह कहावत चल पड़ी।

प्रस्तुति: बेला गर्ग

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