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संन्यास का सच्चा मार्ग

उन दिनों गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन विहार में धार्मिक उपदेश दे रहे थे। नगर के धनी सेठ का पुत्र भी एकाग्रचित्त होकर सुन रहा था। उपदेश समाप्त होने पर...

नवभारत टाइम्स 30 Jun 2016, 11:26 am
उन दिनों गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन विहार में धार्मिक उपदेश दे रहे थे। नगर के धनी सेठ का पुत्र भी एकाग्रचित्त होकर सुन रहा था। उपदेश समाप्त होने पर उसने बुद्ध को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और उनसे संन्यास में दीक्षित करने की प्रार्थना की।
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संन्यास का सच्चा मार्ग


बुद्ध ने स्नेहपूर्वक कहा,‘संन्यास ग्रहण करने के लिए माता-पिता की आज्ञा अनिवार्य है।’ नगर-सेठ का युवा पुत्र विदा लेकर अपने घर लौट आया। सात दिन तक निराहार रह उसने माता-पिता से प्रार्थना की। उन्होंने पुत्र को संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। बुद्ध के निर्देशानुसार वरिष्ठ आचार्य ने उसे दीक्षित कर दिया। वह कई वर्षों तक साधना करता रहा। एक दिन उसका एक पड़ोसी घूमता हुआ वहां आ पहुंचा।

वणिक-पुत्र ने उससे अपने माता-पिता की कुशल पूछी। उसने बताया,‘वृद्धावस्था में वे अस्वस्थ रहने लगे हैं। कठिनाई में जीवन-यापन कर रहे हैं।’ यह सुनकर पुत्र की आखों से आंसू बहने लगे। उसने कमंडल उठाया और भिक्षा लेकर माता-पिता से मिलने के लिए चल दिया। वहां पहुंच उसने दीन-हीन माता-पिता के चरण-स्पर्श किए। एक भिक्षु को नमन करते देख वे चकित रह गए और पूछने लगे,‘तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?’ भिक्षु ने कहा,‘मैं आपका पुत्र हूं। मैं आपकी देखभाल करूंगा।’

अब वह साधना भी करता और भिक्षा मांग अपना व माता-पिता का पालन-पोषण भी करता। दूसरे भिक्षुओं ने उसकी शिकायत गौतम बुद्ध से की,‘वणिक-पुत्र भिक्षा में मिली वस्तुएं गृहस्थों में बांट देता है। उसने संघ का नियम तोड़ा है।’ तथागत ने वणिक-पुत्र को बुलाकर पूछा,‘क्या तुमने भिक्षा में ग्रहण की गई चीजों से गृहस्थों का पालन-पोषण किया?’ उसने उत्तर दिया,‘हां भंते, मैंने अपने बेसहारा बुजुर्ग माता-पिता का पोषण किया।’ गौतम बुद्ध ने घोषणा की,‘भिक्षुओ, वणिक-पुत्र संन्यास के सच्चे मार्ग पर अग्रसर है।’

संकलन: विनोद कुमार यादव

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