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संघर्ष रंग लाता है, बिना डरे डटे रहना ही जीवन है...

उस दिन रोजा नाम की एक अश्वेत महिला भी बस पर अश्वेतों के लिए नियत पिछले हिस्से की सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठी हुई थीं। गोरों के लिए तय आगे का हिस्सा पूरी तरह भर चुका था। इसके बाद जब एक और श्वेत व्यक्ति बस में चढ़ा...

नवभारत टाइम्स 21 Sep 2017, 11:42 am
दिसंबर 1955 की बात है। उन दिनों अमेरिका नस्लभेद की आग में जल रहा था। अमेरिका में रहने वाले काले लोगों को रोज ही कहीं न कहीं अपमानित किया जाता था। वहां के सारे कानून और नीतियां श्वेत लोगों के पक्ष में झुके हुए थे। जैसे अपने यहां अंग्रेजों के राज में उनके साथ भारतीय नहीं बैठ सकते थे, वैसे ही वहां भी श्वेत लोगों के साथ काले लोगों का बैठना पूरी तरह से वर्जित था। यहां तक कि बस के बीच में एक विभाजन रेखा बना दी गई थी और ड्राइवर की ओर सिर्फ श्वेत लोगों को बैठने का हक था।
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संघर्ष रंग लाता है, बिना डरे डटे रहना ही जीवन है...


उस दिन रोजा नाम की एक अश्वेत महिला भी बस पर अश्वेतों के लिए नियत पिछले हिस्से की सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठी हुई थीं। गोरों के लिए तय आगे का हिस्सा पूरी तरह भर चुका था। इसके बाद जब एक और श्वेत व्यक्ति बस में चढ़ा तो बस ड्राइवर ने रोजा की पूरी कतार से सीटें खाली करने को कहा। बाकी सभी अश्वेत लोगों ने अपना-अपना स्थान छोड़ दिया लेकिन रोजा ने इस अपमानजनक आदेश को मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह के अमानवीय बर्ताव को वे अब और सहन नहीं करेंगी। आदेश न मानने के चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर 14 डॉलर का जुर्माना लगाया गया जो उस समय के लिहाज से काफी अधिक था। इस घटना ने पूरे अश्वेत समाज में बिजली-सी दौड़ा दी।

वे अपना हक पाने के लिए उठ खड़े हुए। उनके अहिंसात्मक आंदोलन का नेतृत्व मार्टिन लूथन किंग जूनियर ने किया। आखिरकार रोजा पार्क्स का संघर्ष रंग लाया और अमेरिका में अश्वेतों को समान अधिकार हासिल हुए। अमेरिका में रोजा पार्क्स को नागरिक अधिकारों के संघर्ष में प्रथम महिला कहा जाता है। यह उनका साहस ही था, जिसने मानवता के इतिहास में उनका नाम अमर कर दिया।

संकलन: प्रतीक पाण्डे

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