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राह के कांटे

रिश्ते अंदरूनी अहसास, आत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं। जहां गहरी आत्मीयता नहीं, वो रिश्ता नहीं, रिश्ते का दिखावा हो सकता है।

नवभारत टाइम्स 23 May 2017, 9:37 am
वनवास मिलने के बाद राम, लक्ष्मण और माता सीता चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे। राह बहुत पथरीली और कंटीली थी। अचानक राम के पैर में कांटा चुभ गया। राम क्रोधित नहीं हुए, हाथ जोड़कर धरती माता से अनुरोध करने लगे। बोले- 'मां, मेरी एक विनम्र प्रार्थना है आपसे, क्या आप स्वीकार करेंगी?' धरती माता बोलीं- 'प्रभु प्रार्थना नहीं, आज्ञा दीजिए।' राम बोले, 'मां, मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज में इस पथ से गुजरे तो आप नरम हो जाना। कुछ पल के लिए अपने आंचल में ये पत्थर और कांटे छुपा लेना। मुझे कांटा चुभा सो चुभा, पर मेरे प्यारे भाई भरत के पांव में आघात मत करना।'
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धरती माता ने पूछा- 'भगवन, धृष्टता क्षमा हो! पर क्या आपके भ्राता भरत आपसे अधिक सुकुमार हैं? जब आप इतनी सहजता से कांटे की चुभन सहन कर गए, तो क्या कुमार भरत सहन नहीं कर पाएंगे? फिर उनको लेकर आपके चित्त में ऐसी व्याकुलता क्यों?' राम बोले, 'नहीं माते, आप मेरे कहने का अभिप्राय नहीं समझीं। भरत को यदि कांटा चुभा, तो वह उसके पांव को नहीं बल्कि उसके हृदय को विदीर्ण कर देगा। मां, वह अपनी पीड़ा से नहीं बल्कि यह सोचकर तड़प उठेंगे कि इसी कंटीली राह से मेरे भैया राम गुजरे होंगे और ये शूल उनके पगों में भी चुभे होंगे। मैया, मेरा भरत कल्पना में भी मेरी पीड़ा सहन नहीं कर सकता, इसलिए उसकी उपस्थिति में आप कमल पंखुड़ियों सी कोमल बन जाना।'

सच है, रिश्ते अंदरूनी अहसास, आत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं। जहां गहरी आत्मीयता नहीं, वो रिश्ता नहीं, रिश्ते का दिखावा हो सकता है। इसीलिए कहा गया है कि रिश्ते खून से नहीं, परिवार से नहीं, मित्रता से नहीं, व्यवहार से नहीं सिर्फ और सिर्फ आत्मीय अहसास से बनते हैं।

संकलन: आर.डी. अग्रवाल

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