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तुम्हारा मन तो वहीं का वहीं अटका पड़ा है...

जब वह बोधिधर्म से मिला तो स्वागत की औपचारिकता पूरी होने के बाद उसने एकांत में बोधिधर्म से पूछा, ‘मैंने इतने मंदिर बनवाए, मूर्तियां लगवाई, इतना धर्म-कर्म किया तो इससे मुझे क्या मिलेगा?’ बोधिधर्म ने कहा, ‘कुछ भी नहीं।’

नवभारत टाइम्स 13 Sep 2017, 8:55 am
पंद्रह सौ वर्ष पूर्व बोधिधर्म नामक एक भिक्षु चीन की यात्रा पर गया। उस वक्त चीन का राजा वू था। उसने पूरे देश में बहुत सारे मंदिर बनवाए, मूर्तियां लगवाई। जब उसने सुना कि भारत से विलक्षण योगी आया है तो वह उसके स्वागत के लिए आया। बोधिधर्म के पहले जितने भी भिक्षु चीन आए, सभी ने राजा वू से कहा, ‘तुम अत्यंत धार्मिक हो, बहुत पुण्यशाली हो, स्वर्ग में तुम्हारा स्थान सुरक्षित है।’ खुश होकर राजा भिक्षुकों को नि:शुल्क भोजन कराता। राजा को लगता था कि उसने पर्याप्त धर्म-कर्म कर लिया है और इसके बल पर न केवल इस लोक में उसे लोकप्रियता हासिल रहेगी बल्कि मृत्यु के पश्चात परलोक में भी वह स्वर्ग का अधिकारी होगा।
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तुम्हारा मन तो वहीं का वहीं अटका पड़ा है...


जब वह बोधिधर्म से मिला तो स्वागत की औपचारिकता पूरी होने के बाद उसने एकांत में बोधिधर्म से पूछा, ‘मैंने इतने मंदिर बनवाए, मूर्तियां लगवाई, इतना धर्म-कर्म किया तो इससे मुझे क्या मिलेगा?’ बोधिधर्म ने कहा, ‘कुछ भी नहीं।’ राजा चौंका और फिर बोला, ‘ऐसा क्यों?’ तब बोधिधर्म ने कहा, ‘चूंकि तुमने कुछ पाने की इच्छा रखते हुए यह सब धर्म-कर्म किया और इसका तुम्हें अहंकार भी है। फल पाने की आशा से किया गया पुण्य कभी सत्कर्म नहीं होता।’

राजा वू ने प्रश्न किया, ‘मुझसे मिलने वाले भिक्षु तो स्वर्ग में मेरा स्थान सुरक्षित बताते हैं और आप विपरीत बात कर रहे हैं।’ बोधिधर्म ने जवाब दिया, ‘चूंकि भिक्षु तुम्हारा खाते हैं, इसलिए तुम्हारी प्रशंसा करते है। धर्म के नाम पर तुमने जितना कुछ किया, उसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। धर्म का संबंध इससे है कि मन कितना बदला? तुम्हारा मन तो वहीं का वहीं है, जो इस जगत में बड़ा राज्य और उस जगत में स्वर्ग पाना चाहता है।’ यह सुनकर राजा वू की आंखें खुल गईं और उसने नि:स्वार्थ भाव से परमार्थ पथ पर चलने का संकल्प लिया।

संकलन: राधा नाचीज

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