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अगर आप किसी को प्रेम करते हैं, तो भी मन पूरा प्रेम नहीं करता

जैसा हमारे पास मन है, अगर हम ठीक से समझें, तो हम कह सकते हैं, मन है अनिश्चय करने की शक्ति। मन का सारा काम ही भीतर यह है कि वह हमें निश्चित न होने दे। मन जो भी करता है

नवभारतटाइम्स.कॉम 31 Oct 2017, 11:40 am
ओशो
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जैसा हमारे पास मन है, अगर हम ठीक से समझें, तो हम कह सकते हैं, मन है अनिश्चय करने की शक्ति। मन का सारा काम ही भीतर यह है कि वह हमें निश्चित न होने दे। मन जो भी करता है, अनिश्चय में ही करता है। कोई भी कदम उठाता है, तो भी पूरा मन कभी कोई कदम नहीं उठाता। एक हिस्सा मन का विरोध करता ही रहता है।

अगर आप किसी को प्रेम करते हैं, तो भी मन पूरा प्रेम नहीं करता; मन का एक हिस्सा, जिसे आप प्रेम करते हैं, उसी के प्रति घृणा से भी भरा रहता है। और इसीलिए किसी भी दिन प्रेम घृणा बन सकता है। मन में घृणा तो मौजूद ही है। जिसे आप प्रेम करते हैं, किसी भी क्षण उसी के प्रति क्रोध से भर सकते हैं। एक क्षण में प्रेम की शीतलता क्रोध की अग्नि बन सकती है, क्योंकि मन तो क्रोध से भरा ही है। और पूरे मन से न हम प्रेम करते हैं, और न पूरे मन से हम शांत होते हैं, और न पूरे मन से हम सच्चे होते हैं। पूरा मन जैसी कोई चीज ही नहीं होती। यह समझने में थोड़ी कठिनाई पड़ेगी।

जहां पूरा हो जाता है मन, वहां मन समाप्त हो जाता है। जब तक अधूरा होता है, तभी तक मन होता है। इसे हम ऐसा समझें कि अधूरा होना, मन का स्वभाव है। अपने ही भीतर बंटा होना, मन का स्वभाव है। अपने ही भीतर लड़ते रहना, मन का स्वभाव है। द्वंद्व, कलह, खंडित होना, मन की नियति और प्रकृति है।

आपने जीवन में बहुत बार निर्णय लिए होंगे, रोज लेने पड़ते हैं, लेकिन मन से कभी कोई निर्णय पूरा नहीं लिया जाता। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, संन्यास हमें लेना है, लेकिन अभी सत्तर प्रतिशत मन तैयार है; अभी तीस प्रतिशत मन तैयार नहीं है। कोई आता है, वह कहता है, नब्बे प्रतिशत मन तैयार है; अभी दस प्रतिशत मन तैयार नहीं है। जब मेरा पूरा मन तैयार हो जाएगा, तब मैं संन्यास में छलांग लगाऊंगा। मैं उनसे कहता हूं कि पूरा मन तुम्हारा किसी और चीज में कभी तैयार हुआ है?

पूरा मन कभी तैयार होता ही नहीं। और जब कोई व्यक्ति पूरा तैयार होता है, तो मन शून्य हो जाता है; मन तत्क्षण विदा हो जाता है। अधूरे आदमी के पास मन होता है, पूरे आदमी के पास मन नहीं होता। बुद्ध, या राम, या कृष्ण जैसे व्यक्तियों के पास मन नहीं होता। और जहां मन नहीं होता, वहीं आत्मा के दर्शन, वहीं परमात्मा की झलक मिलनी शुरू होती है।

साधारण-सी बात में भी मन झिझकता है! बाएं रास्ते से जाऊं या दाएं से, तो भी मन सोचता है। तो भी आधा मन कहता है बाएं से, आधा मन कहता है दाएं से। और अगर हम कभी जाते भी हैं, तो वह निर्णय डेमोक्रेटिक होता है, पार्लियामेंटरी होता है। मन का ज्यादा हिस्सा जहां कहता है, वहां हम चले जाते हैं। साठ प्रतिशत मन जो कहता है, वही हम हो जाते हैं। चालीस प्रतिशत जो मन कहता है, उसे हम नहीं करते। बहुमत मन का जो कहता है, हम उसके पीछे चले जाते हैं।

लेकिन जो अभी बहुमत है, वह कल सुबह तक बहुमत रहेगा, यह पक्का नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे पार्लियामेंट में भी पक्का नहीं है कि जो अभी बहुमत है, वह कल सुबह तक भी बहुमत रहेगा। दलबदलू वहां ही नहीं हैं, मन के भीतर भी हैं।

सांझ जिसने तय किया था कि सुबह चार बजे उठूंगा और सोचा था, दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकेगी; सुबह चार बजे घड़ी का अलार्म बजता है, वही आदमी करवट लेकर कहता है, ऐसी भी क्या बात है, अभी सर्दी बहुत है और अगर आधी घड़ी सो भी लिए, तो हर्ज क्या है! वही आदमी सुबह सात बजे उठकर पछताता है और कहता है, यह कैसे हुआ! क्योंकि मैंने संकल्प किया था कि चार बजे उठूंगा ही, चाहे कुछ भी हो जाए। फिर मैं चार बजे उठा क्यों नहीं? दुखी होता है।

ये तीन बातें एक ही आदमी कर लेता है! सांझ तय करता है, उठूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए। चार बजे तय कर लेता है, छोड़ो भी, कुछ ऐसा उठना अनिवार्यता नहीं है; किसी की गुलामी तो नहीं है। घड़ी बज जाए, हम कोई घड़ी के गुलाम तो नहीं हैं कि उठ जाएं। और सुबह सात बजे यही आदमी पछताता है।

यह एक ही आदमी इसलिए कर पाता है, क्योंकि मन का बहुमत बदल जाता है। सांझ नब्बे प्रतिशत से निर्णय लिया था, लेकिन उसे भी पता नहीं कि छः घंटे सोने के बाद आलस्य की ताकतें बढ़ गई होंगी; और नींद के क्षण में मन का वह हिस्सा वजनी हो जाएगा, जो रात को कमजोर था; सांझ अल्पमत में था, सुबह चार बजे बहुमत में हो जाएगा। फिर वही आदमी सात बजे पछताता है, क्योंकि सुबह जागकर सांझ की बुद्धि का खयाल आता है। होश बढ़ता है। सुबह के सूरज के साथ भीतर भी प्रकाश बढ़ता है। वह जो अल्पमत में हो गया था चार बजे रात के अंधेरे में, वह फिर बहुमत में हो गया है। पछतावा शुरू हो जाता है। यह आदमी सांझ फिर तय करेगा, रात फिर बदलेगा, सुबह फिर पछताएगा। पूरी जिंदगी आदमी की ऐसी है। मन कोई भी निर्णय पूरा नहीं ले पाता।

ओशो इंटरनैशनल फाउंडेशन

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