ओशो सिद्धार्थ औलिया
परमानंद की यात्रा काम से राम तक की यात्रा है। काम का अर्थ है- हमारी उत्सुकता जीत में है। हर व्यक्ति छोटा-मोटा सिकंदर होना चाहता है। किसी को धन चाहिए, किसी को पद। लेकिन अंत में मृत्यु के साथ हर जीत हार में बदल जाती है। इसलिए परंपरा है कि जब कोई जीतता है, हम उसे हार पहना देते हैं। फूल की माला को हमने हार कहा है ताकि सनद रहे कि यह जीत सांयोगिक है, हार ही शाश्वत है। अहंकार से ऊपर उठना हो तो जीतने की आकांक्षा छोड़नी होगी। यह आकांक्षा छूटना भी काफी नहीं, हारने का मजा लेना जरूरी है क्योंकि वहीं से सच्ची प्रीति शुरू होती है। कई बार हम हार का मजा तो लेते हैं, मगर जीत में हमारी उत्सुकता बनी ही रहती है। वैसे सदा हारना श्रद्धा भी बन जाता है। जैसे, गुरु से हार। फिर भी, हारने में हारने वाला मौजूद रहता है। ओंकार से परिचय होते ही हारने वाला नहीं बचता। रविदास कहते हैं कि जिससे हमें सच्ची प्रीति हो जाती है, उसके सिवा दुनिया में कोई और दिखाई नहीं देता। वही हमारे जीवन की समस्त क्रियाओं में होता है। सांची प्रीति का लक्षण है- आप अपने प्रियतम को अपने अनुसार ढालने की जिद नहीं करते। बल्कि, खुद को प्रियतम के अनुसार ढाल लेते हैं। प्रभु रंग में रंगे रविदास कहते हैं, ‘जउ तुम गिरवर तउ हम मोरा, जउ तुम चंद तउ हम भए है चकोरा।’ अर्थात- हे गोंविद, अगर तुम पर्वत हो जाओ, तो हम मोर हो जाएंगे और अगर तुम चांद हो जाओ तो हम चकोर हो जाएंगे। रविदास कहते हैं- माधव, अगर तुम मुझसे यह प्रीति की डोर तोड़ना भी चाहो, तो भी हम नहीं तोड़ेंगे- माधवे तुम जो तोरहु तउ हम नहीं तोरहि, तुम सिउ तोरि, कवन सिउ जोरहि।’ हम तुम्हारे अनुसार अपने आप को ढाल लेंगे। अगर तुम दीया हो जाओ, तो हम तुम्हारी बाती हो जाएंगे। अगर तुम तीर्थ हो जाओ, तो हम तुम्हारे यात्री हो जाएंगे। तुमसे हमारा कोई अलग अस्तित्व नहीं है। इसलिए रविदास कहते हैं, ‘जहं जहं जाउ, तहां तेरी सेवा, तुम सो ठाकुरु अउरु न देवा।’ अब तो हर घड़ी तुम्हारे सुमिरन में जीता हूं। अलग से पूजा करने की कोई जरूरत नहीं होती। कहते हैं, तुम्हारे जैसा और कोई देवता नहीं क्योंकि सारे देवता बाहर हैं, केवल गोंविद हमारे भीतर है। जो भी प्रभु के भजन में जीता है, ओंकार के सुमिरन में जीता है, वह जीते जी मृत्यु का आनंद ले लेता है। वह अपने भीतर के अमृत तत्व को जान लेता है और फिर उसकी मृत्यु नहीं होती है। शरीर तो मरेगा, लेकिन वह जानेगा कि भीतर कोई अमृत तत्व है, जो कभी मरता नहीं है, ‘तुमरे भजन कटहि जम फांसा, भगति हेत गावै रविदासा।’ नाम-तत्व की यह भक्ति ही, नाम का यह सुमिरन ही सहज योग है।
परमानंद की यात्रा काम से राम तक की यात्रा है। काम का अर्थ है- हमारी उत्सुकता जीत में है। हर व्यक्ति छोटा-मोटा सिकंदर होना चाहता है। किसी को धन चाहिए, किसी को पद। लेकिन अंत में मृत्यु के साथ हर जीत हार में बदल जाती है। इसलिए परंपरा है कि जब कोई जीतता है, हम उसे हार पहना देते हैं। फूल की माला को हमने हार कहा है ताकि सनद रहे कि यह जीत सांयोगिक है, हार ही शाश्वत है। अहंकार से ऊपर उठना हो तो जीतने की आकांक्षा छोड़नी होगी। यह आकांक्षा छूटना भी काफी नहीं, हारने का मजा लेना जरूरी है क्योंकि वहीं से सच्ची प्रीति शुरू होती है। कई बार हम हार का मजा तो लेते हैं, मगर जीत में हमारी उत्सुकता बनी ही रहती है। वैसे सदा हारना श्रद्धा भी बन जाता है। जैसे, गुरु से हार। फिर भी, हारने में हारने वाला मौजूद रहता है। ओंकार से परिचय होते ही हारने वाला नहीं बचता। रविदास कहते हैं कि जिससे हमें सच्ची प्रीति हो जाती है, उसके सिवा दुनिया में कोई और दिखाई नहीं देता। वही हमारे जीवन की समस्त क्रियाओं में होता है। सांची प्रीति का लक्षण है- आप अपने प्रियतम को अपने अनुसार ढालने की जिद नहीं करते। बल्कि, खुद को प्रियतम के अनुसार ढाल लेते हैं। प्रभु रंग में रंगे रविदास कहते हैं, ‘जउ तुम गिरवर तउ हम मोरा, जउ तुम चंद तउ हम भए है चकोरा।’ अर्थात- हे गोंविद, अगर तुम पर्वत हो जाओ, तो हम मोर हो जाएंगे और अगर तुम चांद हो जाओ तो हम चकोर हो जाएंगे। रविदास कहते हैं- माधव, अगर तुम मुझसे यह प्रीति की डोर तोड़ना भी चाहो, तो भी हम नहीं तोड़ेंगे- माधवे तुम जो तोरहु तउ हम नहीं तोरहि, तुम सिउ तोरि, कवन सिउ जोरहि।’ हम तुम्हारे अनुसार अपने आप को ढाल लेंगे। अगर तुम दीया हो जाओ, तो हम तुम्हारी बाती हो जाएंगे। अगर तुम तीर्थ हो जाओ, तो हम तुम्हारे यात्री हो जाएंगे। तुमसे हमारा कोई अलग अस्तित्व नहीं है। इसलिए रविदास कहते हैं, ‘जहं जहं जाउ, तहां तेरी सेवा, तुम सो ठाकुरु अउरु न देवा।’ अब तो हर घड़ी तुम्हारे सुमिरन में जीता हूं। अलग से पूजा करने की कोई जरूरत नहीं होती। कहते हैं, तुम्हारे जैसा और कोई देवता नहीं क्योंकि सारे देवता बाहर हैं, केवल गोंविद हमारे भीतर है। जो भी प्रभु के भजन में जीता है, ओंकार के सुमिरन में जीता है, वह जीते जी मृत्यु का आनंद ले लेता है। वह अपने भीतर के अमृत तत्व को जान लेता है और फिर उसकी मृत्यु नहीं होती है। शरीर तो मरेगा, लेकिन वह जानेगा कि भीतर कोई अमृत तत्व है, जो कभी मरता नहीं है, ‘तुमरे भजन कटहि जम फांसा, भगति हेत गावै रविदासा।’ नाम-तत्व की यह भक्ति ही, नाम का यह सुमिरन ही सहज योग है।