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मन को साधने का एक मौका है चातुर्मास

ठीक से चिंतन करें तो हम पाते हैं कि ‘उपवास’ परमात्मा के निकट पहुंचने की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसकी शुरुआत चातुर्मास के दौरान हरेक साधक अपने सबसे समीपवर्ती स्थूल-घटक भोजन पर विजय पाकर करता है...

नवभारत टाइम्स 26 Jul 2017, 10:49 am
सनातन एवं जैन धर्म में चातुर्मास यानी चौमासे में आहार-शुद्धि व एकांत तपश्चर्या का विशेष माहात्म्य माना गया है। जुलाई के पहले सप्ताह से चातुर्मास शुरू हो चुका है। दरअसल, हिंदू वार्षिक पंचांग के अनुसार चातुर्मास आषाढ़ मास की देवशयनी एकादशी से प्रारंभ होता है और इसका समापन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रबोधिनी एकादशी को होता है।
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मन को साधने का एक मौका है चातुर्मास


वर्षायोग के दौरान पर्यावरण, भोजन व जल इत्यादि में हानिकारक बैक्टीरिया की तादाद स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है। दूसरी ओर इस मौसम में हमारी जठराग्नि यानी पाचन शक्ति भी मंद पड़ जाती है। इसलिए धार्मिक अनुष्ठान व आध्यात्मिक प्रयोजन के साथ-साथ चातुर्मास में शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध-सात्विक भोजन, अल्पाहार एवं व्रत-उपवास का पालन करना अत्यंत लाभकारी है। चातुर्मास के चार महीनों के दौरान संत-महात्मा, जैनमुनि और मनीषी अपनी परिव्राजक जीवन-शैली का परित्याग कर किसी स्थान-विशेष पर ठहरकर उपवास, मौन-व्रत, ध्यान-साधना, एकांतवास और नवधा भक्ति करते हैं। असलियत में आध्यात्मिकता के तहत उपवास मात्र भोजन का परित्याग नहीं है। उपवास से साधक परमात्मा के नजदीक तो रहता ही है, परमेश्वर के सौंदर्य को भी अपने उपवास के द्वारा निर्मल अन्त:करण में महसूस करता है। ठीक से चिंतन करें तो हम पाते हैं कि ‘उपवास’ परमात्मा के निकट पहुंचने की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसकी शुरुआत चातुर्मास के दौरान हरेक साधक अपने सबसे समीपवर्ती स्थूल-घटक भोजन पर विजय पाकर करता है।

दरअसल, व्रत-उपवास मन की चंचलता को साधते हुए आत्मनिष्ठ होने की पद्धति है। मन की चंचलता क्षीण होते ही साधक को परमात्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है। छांदोग्य उपनिषद में मन के निर्माण की प्रक्रिया को विधिपूर्वक समझाते हुए कहा गया है कि मनुष्य द्वारा खाया हुआ अन्न तीन भागों में बंट जाता है।

अन्न के स्थूल भाग से अपशिष्ट बनकर देह से विसर्जन हो जाता है, अन्न का मध्य भाग रक्त व मांस-मज्जा बन जाता है, और सूक्ष्म भाग से मन का निर्माण होता है। इसलिए कहा भी गया है- जैसा खाओ अन्न, वैसा होगा मन।

आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में गौर किया जाए तो भोजन का सर्वाधिक असर हमारे मन पर पड़ता है। अतः चातुर्मास के चार महीनों में व्रत-उपवास व सात्विक-अल्पाहार लेते हुए ध्यान-साधना करने से व्यक्ति जितेंद्रिय और परमात्मा के निकट वास करने के योग्य बन जाता है। दरअसल, चातुर्मास आहार-शुद्धि, जप, तप, ध्यान और धारणा के माध्यम से मनुष्य की सूक्ष्म और स्थूल कर्मेंद्रियों की शुचिता, आत्म-अनुशासन एवं मानसिक विकारों के विरेचन व शोधन करने का आध्यात्मिक कालखंड है।

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