बॉलिवुड ऐक्ट्रेस दीपिका पादुकोण उन चुनिंदा सिलेब्स में शामिल हैं, जिन्होंने खुलेआम कबूल किया कि वह डिप्रेशन का शिकार रह चुकी हैं। उन्होंने न सिर्फ डिप्रेशन पर काबू पाया, बल्कि दूसरों को भी इससे उबारने के लिए काम कर रही हैं। डिप्रेशन के दौर और उससे निपटने को लेकर दीपिका से बात की नरेन्द्र नाथ ने:
क्या अब आप डिप्रेशन से पूरी तरह उबर चुकी हैं?
बीते समय में डिप्रेशन के साथ जंग का अनुभव मेरे लिए इतना खराब रहा कि मुझे हमेशा डर सताता रहता है कि कहीं मैं एक बार फिर इसकी चपेट में न आ जाऊं। मुझे नहीं लगता कि मैं यह कह सकती हूं कि मैं डिप्रेशन से पूरी तरह उबर चुकी हूं। इतनी सफलताओं के बाद भी मेरे दिलोदिमाग में यह डर हमेशा बना रहता है कि मैं फिर से इसका शिकार बन सकती हूं, क्योंकि मेरे लिए यह अनुभव बहुत ही खराब रहा है। फिल्में करते वक्त भी यह अहसास मुझमें रहता है। जब मैं उस दौर में थी तब मेरी मां ने मुझमें डिप्रेशन के लक्षण देखे और उन्होंने मुझे समझाया कि सब कुछ ठीक हो जाएगा।
पहली बार डिप्रेशन का अहसास आपको कब हुआ?
करीब 3 साल पहले मेरे फैमिली वाले मुझसे मिलने मुंबई आए हुए थे। जब वे लोग वापसी के लिए निकलने वाले थे तो मुझे बेहद अजीब लग रहा था। वे जाने के लिए तैयार थे और मैं बेडरूम में सिमटी हुई बैठी थी। मुझे परेशान देखकर मां ने मुझसे पूछा कि सब ठीक तो है ना? मैंने 'हां' में सिर हिला दिया। मां ने 2-3 बार पूछा और मैं हर बार टालती रही। लेकिन आखिर में मेरा गला भर आया और मैं फूट-फूटकर रो पड़ी। मेरी ऐसी हालत देखकर घरवालों ने टिकट कैंसल कर दिए। मैं अपनी मां से कहना चाहती हूं कि अगर वह न होतीं तो आज मैं यहां न होती। हर पल मेरा साथ देने के लिए शुक्रिया मां। मां हमेशा मेरे साथ रहीं। मुझे कुछ भी पता नहीं लग पा रहा था कि मेरे साथ क्या हो रहा था। मैंने एक अजीब-सा अकेलापन महसूस किया था। इस घटना के बाद पहली बार लगा कि मुझे किसी काउंसलर को दिखाना चाहिए, तब पहली बार मैंने एना चैंडी को दिखाया था। हालांकि इसके बावजूद मैं दवाइयां नहीं खाना चाहती थीं। दरअसल, हमें ऐसा लगता ही नहीं कि हमें कोई मानसिक दिक्कत भी हो सकती है, लेकिन यह कड़वा सच है। सचाई यह है कि हमारे लिए मानसिक स्वास्थ्य को समझना बेहद जरूरी है।
अपने डिप्रेशन के बारे में खुलकर बोलने से क्या आपको कोई नुकसान उठाना पड़ा?
हो सकता है कुछ लोग हों, जिन्होंने यह सोच कर मुझे फिल्में ऑफर न की हों कि यह डिप्रेशन में है और एक्टिंग नहीं कर पाएगी। हालांकि मुझे इस बारे में कुछ भी पक्का पता नहीं है। ऐसा हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता। लेकिन मैं खुश हूं कि मैं वे फिल्में चुन पाती हूं, जिनमें मैं काम करना चाहती हूं। सबके पास यह लग्जरी नहीं होती कि वह तय कर पाए कि कहां काम करना है और कब काम करना है। मेरे पास है। मेरे पास तमाम ऑफर्स आते रहते हैं, लेकिन मैं बेस्ट ही चुनती हूं।
डिप्रेशन को लेकर फिल्म इंडस्ट्री के लोगों की क्या सोच है?
मैं सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री को इसमें नहीं जोडूंगी, यह किसी को भी हो सकता है। ऐसे में जागरूकता जरूरी है। सबसे अहम चीज है कि लोग डिप्रेशन के बारे में बात करने से बचते हैं। उन्हें लगता है कि वे घर के लोगों, बॉस या टीचर को बताएंगे तो पता नहीं वे क्या सोचेंगे! मेरे खयाल से ऐसी स्थिति से एम्प्लॉई को बचाने के लिए ऑफिसों में पॉलिसी बदलनी होगी। कई बार किसी कर्मचारी को कोई मानसिक दिक्कत होती है तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। यह गलत है। मानसिक बीमारी को लेकर इस तरह की धारणा को तोड़ना जरूरी है। जब डायबीटीज या कोई और बीमारी होती है तो हम लोग डॉक्टर के पास जाते हैं और इस बारे में सभी को बताते हैं, लेकिन डिप्रेशन के मामले में ऐसा नहीं होता। दरअसल, आज के प्रतिस्पर्धी दौर में हम अपने आसपास के लोगों को लेकर अपनी संवेदनाएं खोते जा रहे हैं। मैं कहना चाहती हूं कि हम खुद को लेकर और अपने आसपास के लोगों को लेकर थोड़ा और संवेदनशील हो जाएं। मेंटल हेल्थ भी स्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। मैंने महसूस किया है कि शहरों में तो फिर भी इस बारे में लोग बात कर लेते हैं, लेकिन गांवों में तो लोग इससे अनजान ही हैं। वहां खासतौर पर मानसिक स्वास्थ्य के बारे में काम करने की जरूरत है। मैं उन सब लोगों को सलाम करती हूं जो उन कठिन लम्हों को हराकर सर्वाइवर के तौर पर उभरे हैं। साथ ही, जो अपने कठिन दौर से गुजर रहे हैं, उनको भी मैं यह बताना चाहती हूं कि उम्मीद अभी बाकी है। आप हारें नहीं। अपनों से बात करें, काउंसलर से बात करें और हौसला बनाए रखें।
हम इस समस्या पर एनबीटी में अपने रीडर्स के लिए एक खास अभियान शुरू कर रहे हैं। हम बताएंगे कि इस रात की सुबह है। आप इस पर क्या कहेंगी?
यह बहुत अच्छी पहल है। मेरी लोगों को सलाह है कि वे खुल कर इस पर बात करें। जो इस रात से निकल चुके हैं, वे दूसरों को अपनी कहानी बताएं। लोग आपस में बात करें क्योंकि बात से ही बात निकलेगी और हम इस साइलेंट किलर को जड़ से खत्म कर पांएगे।
डराते हैं आंकड़े
- देश में अभी 5 करोड़ के करीब लोग डिप्रेशन का शिकार हैं
- पिछले 10 साल में देश में दिमागी समस्याओं के मरीज 20 फीसदी से ज्यादा बढ़े हैं
- 2015 में 7,88,000 लोगों ने खुद अपनी जान ले ली जिनमें ज्यादातर डिप्रेशन के शिकार थे।
- 18 से 35 उम्र के लोगों में डिप्रेशन सबसे ज्यादा बढ़ा है
- पुरुषों के मुकाबले महिलाएं इस बीमारी की ज्यादा शिकार हो रही हैं
तो क्या है इससे लड़ने का उपाय? इस चुनौती से निकलने के रास्ते क्या हैं? किस तरह इसका सामना कर विजेता के रूप में निकलें? नकारात्मकता पर सकारात्मकता की जीत कैसे हो? हम आपको बताएंगे अपने इस खास कैंपेन 'इस रात की सुबह है' में। हम आपको बताएंगे:
- किस तरह बीमारी को वक्त पर पहचान सकते हैं?
- किस तरह इसका इलाज कर सकते हैं?
- क्यों आपस में बात करने से बहुत बड़ी समस्या का हल निकल सकता है?
- उन लोगों की कहानी बताएंगे उनके ही शब्दों में जो इस जंग से जीत कर निकले हैं?
- आपको एक्सपर्ट की सलाह दिलाएंगे।
तो हमसे जुड़ें और हमारी इस पहल का हिस्सा बनें। खुलकर बात करें।
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