UP Chunav: यूपी की 13वीं विधानसभा में बने थे पांच मुख्यमंत्री, जानिए किसका रिकॉर्ड बुक में दर्ज नहीं हुआ नाम

Curated byराहुल पराशर | नवभारतटाइम्स.कॉम 28 Jan 2022, 9:12 am

उत्तर प्रदेश विधानसभा ने कई रंग देखे हैं। 18 अक्टूबर 1995 से 21 मार्च 1997 तक करीब एक साल 154 दिनों तक यूपी विधानसभा के भंग रहने के बाद चुनाव हुए और इस चुनाव के बाद जो सरकार बनी, उसके किसी भी मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया। विधानसभा चुनाव 1996 में 424 सदस्यीय विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी 174 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन पूर्ण बहुमत के 213 सीटों के जादूई आंकड़े से पीछे रह गई।

  • ​कोई नहीं पूरा कर पाया कार्यकाल, किंगमेकर नरेश अग्रवाल को लगा था झटका

    उत्तर प्रदेश विधानसभा ने कई रंग देखे हैं। 18 अक्टूबर 1995 से 21 मार्च 1997 तक करीब एक साल 154 दिनों तक यूपी विधानसभा के भंग रहने के बाद चुनाव हुए और इस चुनाव के बाद जो सरकार बनी, उसके किसी भी मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया। विधानसभा चुनाव 1996 में 424 सदस्यीय विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी 174 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन पूर्ण बहुमत के 213 सीटों के जादूई आंकड़े से पीछे रह गई। विधानसभा में 110 सीटों के साथ समाजवादी पार्टी दूसरे और 67 सीटों के साथ बहुजन समाज पार्टी तीसरे स्थान पर रही थी। कांग्रेस को 33 और निर्दलीय 13 सीटों पर जीते थे। 27 सीटें अन्य दलों के खातों में गई थी। इसी त्रिशंकु विधानसभा ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर को बदल कर रख दिया। चुनाव के बाद भी सरकार नहीं बन पाई और सरकार बनी तो तीसरे स्थान पर रही बसपा को आगे कर भाजपा ने बाजी अपनी तरफ की। हालांकि, बाद में जो कुछ हुआ, वह इतिहास में दर्ज है। इस विधानसभा के कार्यकाल में सबसे बड़ा झटका कांग्रेस को लगा था, जब नरेश अग्रवाल ने पार्टी ही तोड़ दी थी। लेकिन, नरेश अग्रवाल को भी झटका कैसे लगा, आईए जानते हैं पूरी कहानी...

  • ​पहले मायावती बनी थी सीएम

    वर्ष 1996 के विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के बाद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन जारी रहा। सरकार बनाने के लिए पार्टियों के भीतर वार्ता का दौर चलता रहा। भाजपा आखिरकार मायावती के सामने हथियार डालने को राजी हो गई। 21 मार्च 1997 को बसपा सुप्रीमो मायावती ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन, यह सरकार महज 184 दिन ही चल पाई और उन्होंने 21 सितंबर 1997 को इस्तीफा दे दिया।

  • ​कल्याण सिंह बने थे सीएम

    उत्तर प्रदेश की राजनीति में खेल भाजपा की तरफ से भी चल रहा था। 39 सीटों से पूर्ण बहुमत नहीं पाने वाली भाजपा ने पहले तो मायावती को मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन, इस बीच कांग्रेस में बगावत हुई और पार्टी के 33 में से 22 विधायक नरेश अग्रवाल के पाले में चले गए। निर्दलीय विधायकों और नरेश अग्रवाल का साथ मिलते ही कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद का दावा ठोंका और 21 सितंबर 1997 को पद की शपथ ले ली। हालांकि, वे भी कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। दरअसल, वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी में 57 सीट मिली थी। लेकिन, वर्ष 1999 के लोकसभा चुनाव में पार्टी 29 सीटों पर ही जीत पाई। इसके बाद कल्याण का जाना तय माना जा रहा था। 2 वर्ष 52 दिन बाद 12 नंबर 1999 को उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा।

  • 351 दिन के लिए रामप्रकाश गुप्त भी बने सीएम

    कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री पद से हटने की सबसे बड़ी वजह थी भाजपा नेताओं की आपसी कलह। इस बड़े राज्य में पार्टी के तमाम नेताओं को जोड़कर रख पाने में पार्टी कामयाब नहीं हो पा रही थी। इस कारण आपसी कलह को शांत करने के लिए रामप्रकाश गुप्त को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। इससे तीन दशक पहले वे चौधरी चरण सिंह की सरकार में उप मुख्यमंत्री रह चुके थे। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी पार्टी की छवि को सुधारने का सुझाव दिया। इसके बाद रामप्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा हो गई। 12 नवंबर 1999 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन, भाजपा के कलह को शांत करने में वे कामयाब नहीं हुए। 351 दिन बाद 28 अक्टूबर 2000 को उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा। उन पर पार्टी के कलह को शांत करने में नाकामयाब रहने का भी आरोप लगा।

  • ऐसी और तस्वीरें देखेंडाउनलोड ऐप
  • ​राजनाथ सिंह ने संभाला कार्यभार

    यूपी का बंटवारा हो रहा था और प्रदेश में समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लगातार मजबूत हो रही थी। ऐसे में भाजपा ने अंदरूनी कलह को रोकने के लिए प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन का निर्णय लिया। राजनाथ सिंह को मुख्यमंत्री बनाने फैसला लिया गया। 28 अक्टूबर 2000 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और 8 मार्च 2002 तक वे इस पद पर रहे। राजनाथ सिंह ने पार्टी को मजबूत करने का प्रयास किया, लेकिन पार्टी कई धड़ों में बंट चुकी थी। इस दौरान उन्होंने नरेश अग्रवाल को जिस प्रकार से सीधी चुनौती दे दी, इसने राष्ट्रीय स्तर पर उनके कद को बढ़ाया। हालांकि, वर्ष 2002 में हुए विधानसभा में भाजपा 88 सीटों पर सिमटी और 403 सदस्यीय विधानसभा में समाजवादी पार्टी 143 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन गई।

  • ​किंगमेकर की ही छिन गई कुर्सी

    कांग्रेस के 33 में से 22 विधायकों के साथ विद्रोह कर लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाने वाले नरेश अग्रवाल ने कल्याण सिंह और राम प्रकाश गुप्त को अपने इशारों पर खूब नचाया। लेकिन, राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद असली टकराव शुरू हुआ। वे नरेश अग्रवाल की घुड़कियां सुनने को तैयार नहीं थे। इसी बीच अगस्त 2001 में नरेश अग्रवाल अपनी पार्टी का सम्मेलन हरिद्वार में किया। वहां उन्होंने जमकर मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह पर निशाना साधा। राजनाथ ने उसी समय उन्हें मंत्री पद से हटाने संबंधी आदेश राजभनवन भेज दिया। इसकी सूचना नरेश अग्रवाल को दी गई। वे जैसे ही मंत्री पद से हटाए जाने के बारे में सुने, लखनऊ के लिए निजी गाड़ी से रवाना होना पड़ा। उन्हें अपने सहयोगी विधायकों पर पूरा भरोसा था। हरिद्वार में उन्होंने दावा किया था कि लखनऊ पहुंचते ही राजनाथ सरकार गिर जाएगी। लेकिन, जब तक वे लखनऊ पहुंचते उनके सहयोगी पाला बदल चुके थे। इस एक घटना ने किंगमेकर के हाथ से ताज ही छीन लिया।

  • ​24 घंटे के सीएम बने थे जगदंबिका पाल

    भाजपा के मुख्यमंत्री बदलाव के बीच 13वीं विधानसभा में एक मुख्यमंत्री हुए थे, जगदंबिका पाल। महज 24 घंटे के लिए। सुप्रीम कोर्ट ने तो उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में ही मान्यता देने से इंकार कर दिया। दरअसल, वर्ष 1998 में विपक्षी दलों ने एक मेगा गठबंधन बनाया और इसका चेहरा जगदंबिका पाल को बनाकर राज्यपाल रोमेश भंडारी के समक्ष सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया।राज्यपाल भंडारी ने लोकतांत्रिक कांग्रेस के जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। भाजपा इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट पहुंची। कोर्ट ने कंपोजिट फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दिया। इसमें कल्याण सिंह को 225 और जगदंबिका पाल को 196 वोट मिले। रातो-रात जगदंबिका पाल पूर्व मुख्यमंत्री हो गए। नरेश अग्रवाल ने तब बड़ी भूमिका निभाई थी। ऐसे में कल्याण सिंह की सरकार बच गई।