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विधानसभा चुनाव: उत्तराखंड के काम नहीं आए, पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी

अलग राज्य की मांग ही इसलिए की गई थी कि पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ों में ही रहे। लेकिन राज्य बने 16 साल हो गए पर उत्तराखंड में जितने लोग रहते हैं उससे ज्यादा उत्तराखंडी दिल्ली, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में हैं।

पूनम पाण्डे | नवभारत टाइम्स 2 Feb 2017, 2:50 pm
देहरादून
नवभारतटाइम्स.कॉम uttrakhand assembly election 2017 dehradun
विधानसभा चुनाव: उत्तराखंड के काम नहीं आए, पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी

कुछ दिन पहले जब पीएम मोदी ने देहरादून में चुनावी रैली की तो वादा किया कि 'अब पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी' यहीं के काम आएगी। यह वादा उत्तराखंड के लोग राज्य बनने से पहले से ही सुनते आ रहे हैं। हर चुनाव में यह रिपीट होता है, पर आजतक हालात में कोई बदलाव नहीं आया। अलग राज्य की मांग ही इसलिए की गई थी कि पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ों में ही रहे। लेकिन राज्य बने 16 साल हो गए पर उत्तराखंड में जितने लोग रहते हैं उससे ज्यादा उत्तराखंडी दिल्ली, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में हैं।

नई मंजिल पाने और सपने पूरे करने के लिए महानगरों का रुख करना गलत नहीं है, लेकिन उत्तराखंड के जवान यहां से मजबूरी में बाहर जाते हैं। रोजगार के नाम पर यहां बस कुछ सरकारी नौकरियां हैं। न तो इंडस्ट्री इतनी हैं कि रोजगार का बड़ा जरिया बन सकें और न ही यहां की प्राकृतिक सुंदरता को रोजगार से जोड़ने की कोशिश की गई। राज्य के ज्यादातर युवा पलायन कर चुके हैं या फिर रोजगार के नाम पर दुकानें खोलकर बैठे हैं, जिनसे मुश्किल से गुजारा होता है। अगर राज्य को हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर आगे बढ़ाया गया होता तो बागवानी, पर्यटन और साहसिक पर्यटन राज्य की जवानी को न सिर्फ सहारा देते बल्कि समृद्ध राज्यों की श्रेणी में ला खड़ा करते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राज्य गठन के बाद 16 सालों में 3000 पहाड़ी गांवों से करीब 40 फीसदी पलायन हुआ है। विकास के नाम पर इन सालों में पहाड़ी इलाकों में करीब 15 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए, लेकिन गांवों का खाली होना और पलायन थम नहीं रहा। सरकार खुद मान चुकी है कि पलायन रोकने के लिए स्वावलंबन और रोजगारपरक शिक्षा की जरूरत है।

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में ढाई लाख घरों पर ताले लटके हैं। पहाड़ों में घर सिर्फ खाली ही नहीं हो रहे हैं बल्कि इससे विकराल दिक्कत गांवों का युवा विहीन होना है। रोजगार की तलाश में युवा बाहर निकल रहे हैं और पीछे छूट जाते हैं महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग। आलम यह है कि कई बार बीमार होने या मौत पर बुजुर्गों को कंधा देने वाले लोग तक नहीं मिलते। घर की सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर आ जाती है। पूरे परिवार को संभालती महिला को न कोई हाथ बंटाने वाला मिलता है न ही कोई इमोशनल सपोर्ट। महिलाएं ही इस पहाड़ी राज्य की रीढ़ हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड में 6,23,392 परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं।
लेखक के बारे में
पूनम पाण्डे
पूनम पाण्डे नवभारत टाइम्स में असिस्टेंट एडिटर हैं। वह बीजेपी, आरएसएस और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले कवर करती हैं।... और पढ़ें

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