आचार्य सुरक्षित गोस्वामी
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।। 6/4
अर्थात्: जब कोई इंसान सभी भौतिक इच्छाओं का त्याग कर न तो इन्द्रियों की संतुष्टि के लिए काम करता है और न ही कर्म के फल के चक्कर में पड़ता है तो वह योगारूढ़ कहलाता है |
भोगी का मतलब है जो इन्द्रियों के विषयों रूप, रस, गंध आदि में मजा लेता रहे और उन विषयों को बार-बार भोगने की इच्छा करता रहे। लेकिन जब व्यक्ति योग के रास्ते पर चलता है तब सबसे पहले वह अपनी इन्द्रियों को कंट्रोल में करता है और लगातार अभ्यास करता हुआ सभी इन्द्रियों को अपने काबू में कर लेता है।
साथ ही दिनभर जो भी कार्य करता है उन कर्मों में वो अपनी आसक्ति नहीं रखता जिससे बार-बार उसी कर्म को करने की इच्छा पैदा नहीं होती। ऐसा करने से साधक में निरिच्छा का भाव पैदा होने लगता है, जिससे व्यक्ति के मन में उठने वाले सभी संकल्प बंद होते चले जाते हैं और वह सर्व संकल्पों का संन्यासी हो जाता है, उसी को योगी कहा जाता है।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।। 6/4
अर्थात्: जब कोई इंसान सभी भौतिक इच्छाओं का त्याग कर न तो इन्द्रियों की संतुष्टि के लिए काम करता है और न ही कर्म के फल के चक्कर में पड़ता है तो वह योगारूढ़ कहलाता है |
भोगी का मतलब है जो इन्द्रियों के विषयों रूप, रस, गंध आदि में मजा लेता रहे और उन विषयों को बार-बार भोगने की इच्छा करता रहे। लेकिन जब व्यक्ति योग के रास्ते पर चलता है तब सबसे पहले वह अपनी इन्द्रियों को कंट्रोल में करता है और लगातार अभ्यास करता हुआ सभी इन्द्रियों को अपने काबू में कर लेता है।
साथ ही दिनभर जो भी कार्य करता है उन कर्मों में वो अपनी आसक्ति नहीं रखता जिससे बार-बार उसी कर्म को करने की इच्छा पैदा नहीं होती। ऐसा करने से साधक में निरिच्छा का भाव पैदा होने लगता है, जिससे व्यक्ति के मन में उठने वाले सभी संकल्प बंद होते चले जाते हैं और वह सर्व संकल्पों का संन्यासी हो जाता है, उसी को योगी कहा जाता है।