[ नीलांजन मुखोपाध्याय ]
मधुभाई बापूभाई राउत दुखी होंगे और शायद लोगों की शिकायतें दूर नहीं करने के लिए पार्टी नेताओं को दोषी ठहरा रहे होंगे। बीजेपी नेता गलत वजहों से सुर्खियों में हैं- सबसे कम मार्जिन से चुनाव हारने को लेकर। वह अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित कपरडा सीट से उम्मीदवार थे। यह सीट गुजरात के वलसाड जिले में पड़ती है। वह महज 170 वोटों से हार गए। उनका दुख और बड़ा इसलिए है, क्योंकि इस सीट पर हुए द्विपक्षीय मुकाबले में नोटा के तहत 3,868 वोट पड़े।
गुजरात में कुल 1.8 फीसदी यानी 5,51,615 वोट नोटा के खाते में गए, जबकि हिमाचल प्रदेश में यह आंकड़ा 0.9 फीसदी यानी 34,232 वोटों का रहा। गुजरात में तकरीबन 30 सीटों पर जीत का मार्जिन नोटा के खाते में पड़े वोटों से कम था। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राज्य की सभी 26 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन 4.5 लाख वोटरों ने नोटा विकल्प का इस्तेमाल किया था। यह आप, बीएसपी, जेडी(यू) और एनसीपी को मिले वोटों से ज्यादा था। यह नोटा के राष्ट्रीय औसत 1.1 फीसदी से ज्यादा था। इसे कांग्रेस और बीजेपी दोनों को लेकर हुआ मोहभंग माना जा सकता है। गुजरात की जिन 30 विधानसभा सीटों पर जीत के मार्जिन से ज्यादा नोटा के लिए वोट पड़े, उसका प्रकोप कांग्रेस और बीजेपी दोनों पर बराबर पड़ा। दोनों पार्टियों को 15-15 सीटों पर इसके कारण हार का सामना करना पडा। गोधरा भी ऐसी सीटों में से एक है, जहां बीजेपी उम्मीदवार के जीत का मार्जिन 258 वोट था, जबकि 3,050 वोट नोटा के खाते में गए।
इस चुनाव का एक दिलचस्प ट्रेंड बीजेपी के सीटों की संख्या कम होने के बावजूद उसके वोट शेयर में बढ़ोतरी रही। 2012 के विधानसभा चुनाव की तुलना में उसका वोट शेयर 1.25 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ 49.1 फीसदी रहा, जबकि कांग्रेस का वोट शेयर भी 3.17 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ 42.1 फीसदी (भारतीय ट्राइबल पार्टी को मिलाकर) रहा। 2012 में बीजेपी को कांग्रेस से 8.92 फीसदी ज्यादा वोट मिले थे, जबकि इस बार यह अंतर घटकर 7 फीसदी हो गया।
हालांकि, दोनों पार्टियों के वोटों का अंतर 1.92 फीसदी कम होने से कांग्रेस (सहयोगियों समेत) और बीजेपी की सीटों का अंतर 54 से घटकर 19 रह गया। आमतौर पर जो पार्टी 50 फीसदी वोट हासिल करती है, वह जबरदस्त जीत हासिल करती है। ऐसे दो वजहों से नहीं हुआ- पहली, गुजरात में मुकाबला पूरी तरह से द्विपक्षीय था और निर्दलीय उम्मीदवारों का वोट शेयर 5.83 फीसदी से घटकर 4.3 फीसदी हो गया, जबकि अन्य पार्टियों का वोट शेयर 7.39 फीसदी से घटकर 5.2 फीसदी हो गया।
दूसरी वजह यह रही कि जीत का अंतर अधिक होने से बीजेपी के वोट शेयर में बढ़ोतरी हुई। मिसाल के लिए, 37 सीटों पर 40,000 वोट या इससे अधिक के अंतर से उम्मीदवारों को जीत मिली, जिनमें से 35 बीजेपी के खाते में गईं। उसके उलट 63 सीटों पर 10,000 या इससे कम वोटों के अंतर से फैसला हुआ। इनमें कांग्रेस के 35 सीटों के मुकाबले बीजेपी को 26 सीटों पर जीत मिली। इससे पता चलता है कि पार्टी का वोट शेयर भले ही बढ़ा, लेकिन इसमें बड़ी संख्या बेकार साबित हुई।
गुजरात चुनाव में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के मूड में साफ फर्क नजर आया। शहरी क्षेत्रों में बढ़त की वजह से बीजेपी को चुनाव में जीत मिली। इलेक्शंसइनइंडिया चलाने वाली डेटानेट इंडिया ने राज्य की 182 सीटों में से 37 को रूरल, 38 को शहरी और 107 को रर्बन बताया है। ग्रामीण क्षेत्रों में बीजेपी को 15 और कांग्रेस और उसके सहयोगियों को 21 सीटों पर जीत मिली। रर्बन सीटों पर कांग्रेस को 55 और बीजेपी को 50 सीटों पर विजय हासिल हुई। हालांकि, शहरी क्षेत्रों में बीजेपी को 34 और कांग्रेस को सिर्फ 4 सीटें मिलीं। डेटा की पड़ताल से पता चलता है कि कांग्रेस अगर ग्रामीण वोटरों की नाराजगी को और भुना पाती तो नतीजे अलग होते। सत्ता विरोधी लहर दिखने के बावजूद कांग्रेस इन क्षेत्रों में 2012 जितनी सीटें ही जीत पाई। इससे पता चलता है कि वह इस गुस्से को अपने हक में नहीं भुना पाई। बीजेपी ने एस्पिरेशनल आइडिया बेचे, जिससे अधिक आमदनी वाले शहरी क्षेत्रों में उसका प्रदर्शन बढ़िया रहा। कांग्रेस ने लो इनकम और रूरल क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया।