साल 1977 की बात है। मेरे लिए सब कुछ नया-नया था। कुछ समय पहले मैं जेल का कैदी था। अब एकदम मुख्यमंत्री बन गया था। मुझे मंत्रिमंडल का गठन करना था। दिल्ली आकर मैं बहुत परेशान हो गया। सभी दलों के प्रमुख नेता अपने-अपने लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल करवाना चाहते थे। मैं सबसे मिला। बातें सबकी सुनीं परंतु उनके सुझाव स्वीकार न कर सका। चंद्रशेखर जी ने भी मुझे कुछ नाम बताए। उनके सुझाव पर मैंने एक नाम स्वीकार किया बाकियों के लिए इनकार कर दिया। उन्हें अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मुझे प्रधानमंत्री से मिलने के लिए कहा। प्रधानमंत्री के कमरे में जाते हुए मेरे मन में कई प्रकार के विचार आए। इतने बड़े देश के प्रधानमंत्री से मैं पहली बार मिलने जा रहा हूं और वह भी एक मुख्यमंत्री के रूप में।
'नेगी जी अच्छे व्यक्ति हैं, उन्हें विधानसभा का अध्यक्ष मान लो'
मोरारजी देसाई जी गंभीर, शांत मुद्रा में अपनी कुर्सी पर बैठे थे। मैंने नमस्कार किया। उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक एक नजर में ही देख लिया। मैं संकोच व झिझक का अनुभव कर रहा था। हाथ मिलाने का प्रयत्न भी नहीं किया। दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की और चुपचाप कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उन्हें बताया कि सबसे सलाह कर मंत्रिमंडल की सूची अंतिम कर ली है। इधर-उधर की थोड़ी बातें करने के बाद उन्होंने पूछा, ठाकुर सैन नेगी जी को जानते हो? मैंने हां कर दी। फिर कहने लगे, ‘नेगी जी अच्छे व्यक्ति हैं, उन्हें विधानसभा का अध्यक्ष मान लो।’ मैं इस प्रस्ताव के लिए बिलकुल तैयार नहीं था। ऐसा सोचा भी नहीं था। थोड़ा संभलकर मैंने कहा, ‘पर वह तो हमारी पार्टी में नहीं हैं।’ वह कहने लगे, ‘नहीं हैं, पर आप उनसे कहेंगे तो आ जाएंगे।’ मैं थोड़ी देर चुप रहा। एकदम निर्णय करना और कुछ कहना कठिन था। वैसे भी दो-तीन दिन से सभी बड़े नेताओं के इस प्रकार के आग्रहपूर्ण सुझाव से मैं काफी परेशान हो गया था। हिम्मत की और संभलकर कहा, ‘पर वे तो पिछले कांग्रेस मंत्रिमंडल में मंत्री बन गए थे। 1967 में वे विरोधी दल में रहे परंतु इमरजेंसी में कांग्रेस में चले गए। कांग्रेस सरकार में मंत्री बने। जयप्रकाश आंदोलन के विरुद्ध भाषण भी करते रहे। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में उन्होंने कांग्रेस का समर्थन किया। ऐसी परिस्थिति में उन्हें एकदम अध्यक्ष बनाना बिलकुल गलत होगा।’ मैं एक ही बार में सब कह गया। देसाई जी बड़ी पैनी नजर से मेरी ओर देखते रहे। कुछ देर चुप रहे। थोड़ी देर बाद कहने लगे, ‘ठीक है। ऐसी बात है तो रहने दो।’ देसाई जी के इस कथन पर मैंने राहत की सांस ली।
पूर्व सीएम का ही स्टाफ लिया
पहले दिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद मेरे मन में विचारों की आंधी आ गई। कुछ समय बाद मुख्य सचिव आए। मेरी उनसे पहली मुलाकात थी। अपने सहयोग और वफादारी की बात की। कहा, सबसे पहले मुझे अपने निजी स्टाफ का चयन करना है। मुझे याद आया कि बहुत से मित्रों और संबंधियों ने निजी स्टाफ के लिए बहुत से नामों की सिफारिश की है। कुछ मित्रों ने सलाह भी दी थी कि निजी स्टाफ में निकटस्थ मित्र या संबंधी परिवार के ही लोगों को रखूं। मैंने मुख्य सचिव को कहा कि जो अधिकारी पूर्व मुख्यमंत्री के साथ निजी सचिव के रूप में काम करते थे उन्हीं को मेरे साथ कर दिया जाए। मुख्य सचिव हैरान हुए, फिर बोले, ‘सर क्या अजय कुमार ही?’ मैंने कहा, ‘हां, वही।’ वे खड़े होकर फिर हैरानी से पूछने लगे, ‘सर, नो चेंज?’ मैंने कहा, ‘सेम चीफ सेक्रेटरी एंड सेम सेक्रेटरी।’ वे हंस पड़े और उठकर चले गए।
मेरा कोई निजी एजेंडा नहीं होगा
इसके थोड़ी देर बाद नवनियुक्त मुख्य निजी सचिव मुझसे मिलने आए और निजी स्टाफ के संबंध में मुझसे चर्चा की। मैंने कहा कि इस संबंध में मैंने सब सोच लिया है। डॉ. परमार जी के साथ जो स्टाफ था, वही मेरे साथ लगा दिया जाए। दूसरे दिन मुख्य निजी सचिव और निजी स्टाफ के साथ मैंने बैठक की। मैंने कहा, ‘यह कार्यालय मुख्यमंत्री का है, किसी का निजी नहीं है। आप सबने डॉ. परमार जैसे बढ़िया मुख्यमंत्री के साथ काम किया है, इसलिए मैंने आपको ही अपने साथ नियुक्त कर लिया है। बस, एक बात याद रखना मेरा कोई व्यक्तिगत स्वार्थ या अजेंडा नहीं होगा। परंतु मैं कभी भी किसी भी प्रकार की गलत बात को स्वीकार नहीं करूंगा। मैं बिल्कुल नया हूं। आप सब का सहयोग चाहूंगा। अनुभवहीन होने के कारण यदि कभी किसी कारण गलत काम होने लगे तो बिना झिझक रोक देना।’
जब मुख्य सचिव छुट्टी पर गए
विधानसभा का सत्र प्रारंभ हुआ। पहली बार विधानसभा के उस सत्र में मुख्यमंत्री के रूप में बैठना भी एक उल्लास का अनुभव था। हिंदी को सम्मान देने के लिए आने वाली 26 जनवरी से प्रदेश में हिंदी को कामकाज की भाषा के रूप में लागू करने की घोषणा की। अधिवेशन समाप्त होने के अगले दिन जब मैं कार्यालय आया तो मुझे बताया गया कि मुख्य सचिव छुट्टी पर चले गए हैं। शायद उनकी सहमति के विरुद्ध हिंदी लागू करने के निर्णय से वे नाराज हैं। चर्चा होने लगी कि हमारी सरकार का यह निर्णय लागू नहीं हो सकेगा। लगभग सभी अधिकारी अंग्रेजी में ही काम करने के इच्छुक थे। तीसरे दिन सबसे पहले कार्यालय में मुख्य सचिव आए और आते ही नमस्कार करके कहने लगे, ‘सर, हिंदी हो सकता है।’ मैं उन्हें देखता रहा और हैरान होता रहा। मैंने पूछा, ‘आप छुट्टी पर गए थे, स्वास्थ्य तो ठीक है?’ वह मुस्कुरा कर कहने लगे कि बिलकुल स्वस्थ हूं। छुट्टी हिंदी में हस्ताक्षर करने का अभ्यास करने के लिए ली थी। हाथ में लिए कागज को मेरे आगे बढ़ाकर हिंदी में हस्ताक्षर करके मुझे दिखाया और मुस्कुराने लगे।
( शान्ता कुमार की पुस्तक ‘निज पथ का अविचल पंथी’ से साभार)