नई दिल्ली
केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट में समलैंगिक शादी का पुरजोर विरोध करते हुए इसे गलत बताया है। सरकार ने कोर्ट से कहा कि देश का कानून, हमारी न्याय प्रक्रिया समाज और हमारे नैतिक मूल्य इसकी मान्यता नहीं देते हैं। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में अपने एक फैसले में समलैंगिक संबंधो को अपराध नहीं बताया था। शीर्ष अदालत के 5 जजों की संविधान पीठ ने समलैंगिकता को अवैध बताने वाली भारतीय दंड संहिता (IPC) के सेक्शन 377 को तर्कहीन, और मनमाना करार दिया था। आइए समझते हैं क्या है पूरा मामला और केंद्र ने विरोध में दिया है क्या तर्क.. समझिए क्या है पूरा मामला
एलजीबीटी (LGBT) समुदाय के चार सदस्यों ने मिलकर 8 सितंबर को एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसकी सुनवाई दिल्ली के चीफ जस्टिस एचसी डीएन पटेल और जज प्रतीक जालान की बेंच कर रही है। याचिकाकर्ताओं ने समलैंगिक विवाह को हिन्दू विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम के तहत मान्यता देने का अनुरोध किया है। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि जब देश में समलैंगिकता अपराध नहीं तो फिर शादी अपराध कैसे हो सकती है। याचिकाकर्ताओं के वकील राघव अवस्थी का कहना है कि जब LGBT समुदाय को सुप्रीम कोर्ट ने मान्यता दी है, तो फिर शादी को मान्यता न देना संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन होगा।
केंद्र का तर्क, पति कौन, पत्नी कौन?
केंद्र की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, 'हमारे कानून, हमारी न्याय प्रणाली, हमारा समाज और हमारे मूल्य समलैंगिक जोड़े के बीच विवाह को मान्यता नहीं देते हैं। हमारे यहां विवाह को पवित्र बंधन माना जाता है।' उन्होंने कहा कि ऐसे विवाहों को मान्यता देने और उनका पंजीकरण कराने की अनुमति दो अन्य कारणों से भी नहीं दी जा सकती है। पहला- याचिका अदालत से इस संबंध में कानून बनाने का अनुरोध कर रही है। दूसरा-इन्हें दी गई कोई भी छूट 'विभिन्नन वैधानिक प्रावधानों के विरूद्ध होगी।' मेहता ने यह भी कहा कि हिन्दू विवाह अधिनियम में भी विवाह से जुड़े विभिन्न प्रावधान संबंधों के बारे में पति और पत्नी की बात करते हैं, समलैंगिक विवाह में यह कैसे निर्धारित होगा कि पति कौन है और पत्नी कौन।
केंद्र के खिलाफ याचिकाकर्ताओं के ये तर्क
याचिकाकर्ताओं की तरफ से पेश वकील अवस्थी ने कहा कि 21 वीं सदी में समलैंगिक शादियों को समान अधिकार नहीं दिए जाने का कोई कारण नहीं दिखता है। याचिकाकर्ता गोपी शंकर ने इस मामले में समानता की बात की। उन्होंने कहा कि LGBT समुदाय के ऐसे लोग हैं जिनकी शादी को रजिस्ट्रार रजिस्टर ही नहीं कर रहे हैं। याचिकाकर्ता ने इस बाबत 2019 के मद्रास हाईकोर्ट के एक फैसले की ओर इशारा किया, जिसमें एक आदमी और एक ट्रांसवुमन की शादी को बरकरार रखा गया था। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा गया था कि हिंदू मैरिज ऐक्ट में ‘दुलहन’ शब्द में एक ट्रांसवुमन भी शामिल है।
कोर्ट ने की यह टिप्पणी, 21 अक्टूबर को अगली सुनवाई
पीठ ने यह माना कि दुनिया भर में चीजे बदल रही हैं, लेकिन यह भारत के परिदृश्य में लागू हो भी सकता है और नहीं भी। अदालत ने इस संबंध में जनहित याचिका की जरूरत पर भी सवाल उठाया। उसका कहना है कि जो लोग इससे प्रभावित होने का दावा करते हैं, वे शिक्षित हैं और खुद अदालत तक आ सकते हैं। पीठ ने कहा, 'हम जनहित याचिका पर सुनवाई क्यों करें।' याचिका दायर करने वालों के वकील ने कहा कि प्रभावित लोग समाज में बहिष्कार के डर से सामने नहीं आ रहे हैं इसलिए जनहित याचिका दायर की गई है। अदालत ने वकील से कहा कि वह उन समलैंगिक जोड़ों की सूचना उन्हें दे जो अपने विवाह का पंजीकरण नहीं करा पा रहे हैं। अदालत ने मामले की सुनवाई के लिए 21 अक्टूबर की तारीख तय की है।
377 पर सुप्रीम कोर्ट ने दिया था बड़ा फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर 2018 को एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा था कि समलैंगिकता अपराध नहीं है। पांच जजों की बेंच ने एकमत से सुनाए गए इस फैसले धारा 377 को रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को अतार्किक और मनमाना बताते हुए कहा था कि LGBT समुदाय को भी समान अधिकार हासिल हैं। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि यौन प्राथमिकता बाइलोजिकल और प्राकृतिक है और इसमें राज्य को दखल नहीं देना चाहिए।
केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट में समलैंगिक शादी का पुरजोर विरोध करते हुए इसे गलत बताया है। सरकार ने कोर्ट से कहा कि देश का कानून, हमारी न्याय प्रक्रिया समाज और हमारे नैतिक मूल्य इसकी मान्यता नहीं देते हैं। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में अपने एक फैसले में समलैंगिक संबंधो को अपराध नहीं बताया था। शीर्ष अदालत के 5 जजों की संविधान पीठ ने समलैंगिकता को अवैध बताने वाली भारतीय दंड संहिता (IPC) के सेक्शन 377 को तर्कहीन, और मनमाना करार दिया था। आइए समझते हैं क्या है पूरा मामला और केंद्र ने विरोध में दिया है क्या तर्क..
एलजीबीटी (LGBT) समुदाय के चार सदस्यों ने मिलकर 8 सितंबर को एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसकी सुनवाई दिल्ली के चीफ जस्टिस एचसी डीएन पटेल और जज प्रतीक जालान की बेंच कर रही है। याचिकाकर्ताओं ने समलैंगिक विवाह को हिन्दू विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम के तहत मान्यता देने का अनुरोध किया है। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि जब देश में समलैंगिकता अपराध नहीं तो फिर शादी अपराध कैसे हो सकती है। याचिकाकर्ताओं के वकील राघव अवस्थी का कहना है कि जब LGBT समुदाय को सुप्रीम कोर्ट ने मान्यता दी है, तो फिर शादी को मान्यता न देना संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन होगा।
केंद्र का तर्क, पति कौन, पत्नी कौन?
केंद्र की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, 'हमारे कानून, हमारी न्याय प्रणाली, हमारा समाज और हमारे मूल्य समलैंगिक जोड़े के बीच विवाह को मान्यता नहीं देते हैं। हमारे यहां विवाह को पवित्र बंधन माना जाता है।' उन्होंने कहा कि ऐसे विवाहों को मान्यता देने और उनका पंजीकरण कराने की अनुमति दो अन्य कारणों से भी नहीं दी जा सकती है। पहला- याचिका अदालत से इस संबंध में कानून बनाने का अनुरोध कर रही है। दूसरा-इन्हें दी गई कोई भी छूट 'विभिन्नन वैधानिक प्रावधानों के विरूद्ध होगी।' मेहता ने यह भी कहा कि हिन्दू विवाह अधिनियम में भी विवाह से जुड़े विभिन्न प्रावधान संबंधों के बारे में पति और पत्नी की बात करते हैं, समलैंगिक विवाह में यह कैसे निर्धारित होगा कि पति कौन है और पत्नी कौन।
केंद्र के खिलाफ याचिकाकर्ताओं के ये तर्क
याचिकाकर्ताओं की तरफ से पेश वकील अवस्थी ने कहा कि 21 वीं सदी में समलैंगिक शादियों को समान अधिकार नहीं दिए जाने का कोई कारण नहीं दिखता है। याचिकाकर्ता गोपी शंकर ने इस मामले में समानता की बात की। उन्होंने कहा कि LGBT समुदाय के ऐसे लोग हैं जिनकी शादी को रजिस्ट्रार रजिस्टर ही नहीं कर रहे हैं। याचिकाकर्ता ने इस बाबत 2019 के मद्रास हाईकोर्ट के एक फैसले की ओर इशारा किया, जिसमें एक आदमी और एक ट्रांसवुमन की शादी को बरकरार रखा गया था। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा गया था कि हिंदू मैरिज ऐक्ट में ‘दुलहन’ शब्द में एक ट्रांसवुमन भी शामिल है।
कोर्ट ने की यह टिप्पणी, 21 अक्टूबर को अगली सुनवाई
पीठ ने यह माना कि दुनिया भर में चीजे बदल रही हैं, लेकिन यह भारत के परिदृश्य में लागू हो भी सकता है और नहीं भी। अदालत ने इस संबंध में जनहित याचिका की जरूरत पर भी सवाल उठाया। उसका कहना है कि जो लोग इससे प्रभावित होने का दावा करते हैं, वे शिक्षित हैं और खुद अदालत तक आ सकते हैं। पीठ ने कहा, 'हम जनहित याचिका पर सुनवाई क्यों करें।' याचिका दायर करने वालों के वकील ने कहा कि प्रभावित लोग समाज में बहिष्कार के डर से सामने नहीं आ रहे हैं इसलिए जनहित याचिका दायर की गई है। अदालत ने वकील से कहा कि वह उन समलैंगिक जोड़ों की सूचना उन्हें दे जो अपने विवाह का पंजीकरण नहीं करा पा रहे हैं। अदालत ने मामले की सुनवाई के लिए 21 अक्टूबर की तारीख तय की है।
377 पर सुप्रीम कोर्ट ने दिया था बड़ा फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर 2018 को एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा था कि समलैंगिकता अपराध नहीं है। पांच जजों की बेंच ने एकमत से सुनाए गए इस फैसले धारा 377 को रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को अतार्किक और मनमाना बताते हुए कहा था कि LGBT समुदाय को भी समान अधिकार हासिल हैं। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि यौन प्राथमिकता बाइलोजिकल और प्राकृतिक है और इसमें राज्य को दखल नहीं देना चाहिए।