नई दिल्ली
केरल के संत केशवानंद भारती का रविवार सुबह निधन हो गया। केरल के मठ संत केशवानंद भारती की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में जो फैसला दिया वह फैसला केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस फैसले में कहा गया कि संसद मूलभूत ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती। आजाद भारत के इतिहास में केशवानंद भारती का केस भारतीय न्यायपालिका के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। इस फैसले के बाद जब भी संविधान में संशोधन हुए तो उसे केशवानंद भारती केस में दिए फैसले के आधार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा परखा गया और जहां भी महशूस हुआ कि संविधान संशोधन मूलभूत ढांचे को टच करता है उस फैसले को खारिज़ कर दिया गया। इंदिरा गांधी सरकार के फैसले बने इस केस की बुनियाद
केशवानंद भारती केस को समझने से पहले हमें 60 और 70 के दशक में इंदिरा गांधी सरकार के कुछ बड़े राजनैतिक फैसलों का जिक्र करना जरूरी है। न्यायपालिका और कार्यपालिका का टकराव हमें उस दौर में कई मामलों में देखने को मिला। दरअसल, इंदिरा ने उस दौर में लगातार कई कठोर फैसले लिए तब सुप्रीम कोर्ट से इंदिरा सरकार के फैसलों को लगातार कई झटके लगे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बैंकों के राष्ट्रीयकारण का इंदिरा सरकार का फैसला और उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा पलटा जाना है और यहीं से केशवानांद भारती केस की बुनियाद पड़ी। बैंक राष्ट्रीयकरण को खारिज करते हुए अदालत ने व्यवस्था दी थी कि अगर किसी की संपत्ति जब्त होती है तो संविधान मुआवजे की गारंटी देता है।
इसके बाद तत्कालीन सरकार ने 1971 में आजादी के बाद भी राजघरानों को मिलने वाले प्रिवी पर्स यानी वित्तीय सहयता के प्रावधान को भी निरस्त कर दिया। इस फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। ये फैसला भी न्यायिक परीक्षण में टिक नही पाया।एक के बाद एक बड़े फैसले सुप्रीम कोर्ट से खारिज होते चले गए। तब इंदिरा गांधी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के गोलकनाथ केस में दिए फैसले के बाद की स्थिति का आंकलन कर संविधान में संशोधन करना शुरू कर दिया। देखा जाए तो 1967 के गोलकनाथ केस के फैसले के बाद न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच लगातार छह साल तक उठापटक चलती रही थी और ये तब तक चलती रही जब तक केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ गया।
केशवानंद भारती यूं ही नहीं कहलाते 'संविधान के रक्षक', 47 साल पुरानी है वजह
दरअसल, गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि सरकार मौलिक अधिकार में संशोधन नहीं कर सकती और ये बेहद अहम फैसला था। लेकिन इस फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान में संशोधन का रास्ता अपनाया और एक के बाद एक कई संशोधन किए।संविधान के 24 वें संशोधन में संसद को ये अधिकार दे दिया गया कि वह संविधान के किसी भी पार्ट में संशोधन कर सकती है। जबकि 25 वां संशोधन बैंक के राष्ट्रीयकरण और 26 वां संशोधन प्रिवी पर्स के मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए था।
केशवानंद भारती केस 68 दिन चला और दिग्गज वकील ननी पालकीवाला ने लड़ा
सरकार के इन संवैधानिक संशोधनों के बाद केरल के एक मठ प्रमुख केशवानंद भारती ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कहा कि उनके संस्थान के मैनेजमेंट का अधिकार उनका है,और इस तरह सरकार के संविधान संशोधन के असीमित अधिकार को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दे दी गई।केशवानंद भारती का केस दिग्गज वकील ननी पालकीवाला ने लड़ा था। केशवानंद भारती केस का विषय अनुच्छेद-368 के तहत संविधान के संशोधन की शक्तियों के परीक्षण से संबंधित था। यानी अनुच्छेद-368 के तहत संसद को संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमाएं क्या हैं इस बात का परीक्षण होना था। सुप्रीम कोर्ट के सामने मुख्य सवाल ये था कि क्या अनुच्छेद-368 के तहत संसद को संविधान में संशोधन की असीमित शक्ति है? क्या संविधान संशोधन के जरिये मौलिक अधिकार निरस्त किए जा सकते हैं? सविधान संशोधन की सीमाएं क्या है?
चूंकि गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों ने सुनवाई की थी इसलिए केशवानंद भारती केस से संबंधित वाद की सुनवाई के लिए 13 जजों की संवैधानिक बेंच का गठन किया गया। केशवानंद भारती केस में ऐतिहासिक फैसला दिया गया और कहा गया कि पार्लियामेंट को संविधान में संशोधन का अधिकार है लेकिन संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर यानी मूलभूत ढांचे को नहीं बदला जा सकता। चीफ जस्टिस एसएम सिकरी की अगुवाई वाली 13 जजों की बेंच ने 7 बनाम 6 के बहुमत से ये फैसला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान संशोधन कर बेसिक स्ट्रक्चर यानी मूलभूत ढांचे में न तो छेड़छाड़ हो सकताी है और न ही उसे खत्म किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के पास ये अधिकार होगा कि वह संविधान संशोधन की संवैधानिकता को परखेगा। मूलभूत ढांचा क्या है इस पर जजों ने अलग से अपनी राय व्यक्त की थी।
अधिकांश जजों ने प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और कर्तव्य को संविधान का मूलभूत ढांचा माना था। ये फैसला कई मायनों में बेहद संतुलित और महत्वपूर्ण था। आजाद हिंदुस्तान में सबसे लंबी 68 दिन इसी केस की सुनवाई चली थी और संवैधानिक बेंच का जो फैसला हुआ वो भारतीय न्यायिक इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ।
केरल के संत केशवानंद भारती का रविवार सुबह निधन हो गया। केरल के मठ संत केशवानंद भारती की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में जो फैसला दिया वह फैसला केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस फैसले में कहा गया कि संसद मूलभूत ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती। आजाद भारत के इतिहास में केशवानंद भारती का केस भारतीय न्यायपालिका के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। इस फैसले के बाद जब भी संविधान में संशोधन हुए तो उसे केशवानंद भारती केस में दिए फैसले के आधार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा परखा गया और जहां भी महशूस हुआ कि संविधान संशोधन मूलभूत ढांचे को टच करता है उस फैसले को खारिज़ कर दिया गया।
केशवानंद भारती केस को समझने से पहले हमें 60 और 70 के दशक में इंदिरा गांधी सरकार के कुछ बड़े राजनैतिक फैसलों का जिक्र करना जरूरी है। न्यायपालिका और कार्यपालिका का टकराव हमें उस दौर में कई मामलों में देखने को मिला। दरअसल, इंदिरा ने उस दौर में लगातार कई कठोर फैसले लिए तब सुप्रीम कोर्ट से इंदिरा सरकार के फैसलों को लगातार कई झटके लगे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बैंकों के राष्ट्रीयकारण का इंदिरा सरकार का फैसला और उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा पलटा जाना है और यहीं से केशवानांद भारती केस की बुनियाद पड़ी। बैंक राष्ट्रीयकरण को खारिज करते हुए अदालत ने व्यवस्था दी थी कि अगर किसी की संपत्ति जब्त होती है तो संविधान मुआवजे की गारंटी देता है।
इसके बाद तत्कालीन सरकार ने 1971 में आजादी के बाद भी राजघरानों को मिलने वाले प्रिवी पर्स यानी वित्तीय सहयता के प्रावधान को भी निरस्त कर दिया। इस फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। ये फैसला भी न्यायिक परीक्षण में टिक नही पाया।एक के बाद एक बड़े फैसले सुप्रीम कोर्ट से खारिज होते चले गए। तब इंदिरा गांधी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के गोलकनाथ केस में दिए फैसले के बाद की स्थिति का आंकलन कर संविधान में संशोधन करना शुरू कर दिया। देखा जाए तो 1967 के गोलकनाथ केस के फैसले के बाद न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच लगातार छह साल तक उठापटक चलती रही थी और ये तब तक चलती रही जब तक केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ गया।
केशवानंद भारती यूं ही नहीं कहलाते 'संविधान के रक्षक', 47 साल पुरानी है वजह
दरअसल, गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि सरकार मौलिक अधिकार में संशोधन नहीं कर सकती और ये बेहद अहम फैसला था। लेकिन इस फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान में संशोधन का रास्ता अपनाया और एक के बाद एक कई संशोधन किए।संविधान के 24 वें संशोधन में संसद को ये अधिकार दे दिया गया कि वह संविधान के किसी भी पार्ट में संशोधन कर सकती है। जबकि 25 वां संशोधन बैंक के राष्ट्रीयकरण और 26 वां संशोधन प्रिवी पर्स के मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए था।
केशवानंद भारती केस 68 दिन चला और दिग्गज वकील ननी पालकीवाला ने लड़ा
सरकार के इन संवैधानिक संशोधनों के बाद केरल के एक मठ प्रमुख केशवानंद भारती ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कहा कि उनके संस्थान के मैनेजमेंट का अधिकार उनका है,और इस तरह सरकार के संविधान संशोधन के असीमित अधिकार को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दे दी गई।केशवानंद भारती का केस दिग्गज वकील ननी पालकीवाला ने लड़ा था। केशवानंद भारती केस का विषय अनुच्छेद-368 के तहत संविधान के संशोधन की शक्तियों के परीक्षण से संबंधित था। यानी अनुच्छेद-368 के तहत संसद को संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमाएं क्या हैं इस बात का परीक्षण होना था। सुप्रीम कोर्ट के सामने मुख्य सवाल ये था कि क्या अनुच्छेद-368 के तहत संसद को संविधान में संशोधन की असीमित शक्ति है? क्या संविधान संशोधन के जरिये मौलिक अधिकार निरस्त किए जा सकते हैं? सविधान संशोधन की सीमाएं क्या है?
चूंकि गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों ने सुनवाई की थी इसलिए केशवानंद भारती केस से संबंधित वाद की सुनवाई के लिए 13 जजों की संवैधानिक बेंच का गठन किया गया। केशवानंद भारती केस में ऐतिहासिक फैसला दिया गया और कहा गया कि पार्लियामेंट को संविधान में संशोधन का अधिकार है लेकिन संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर यानी मूलभूत ढांचे को नहीं बदला जा सकता। चीफ जस्टिस एसएम सिकरी की अगुवाई वाली 13 जजों की बेंच ने 7 बनाम 6 के बहुमत से ये फैसला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान संशोधन कर बेसिक स्ट्रक्चर यानी मूलभूत ढांचे में न तो छेड़छाड़ हो सकताी है और न ही उसे खत्म किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के पास ये अधिकार होगा कि वह संविधान संशोधन की संवैधानिकता को परखेगा। मूलभूत ढांचा क्या है इस पर जजों ने अलग से अपनी राय व्यक्त की थी।
अधिकांश जजों ने प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और कर्तव्य को संविधान का मूलभूत ढांचा माना था। ये फैसला कई मायनों में बेहद संतुलित और महत्वपूर्ण था। आजाद हिंदुस्तान में सबसे लंबी 68 दिन इसी केस की सुनवाई चली थी और संवैधानिक बेंच का जो फैसला हुआ वो भारतीय न्यायिक इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ।