नई दिल्ली
नेपाल जिसे अबतक भारत का अच्छा दोस्त माना जाता रहा है उसने कल यानी शनिवार को अपनी संसद में विवादित बिल पास कर दिया है। यह बिल नेपाल के नए नक्शे को मान्यता देता है जिसमें रणनीतिक रूप से अहम तीन भारतीय इलाकों- लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाल ने अपने क्षेत्र में दिखाया है। लेकिन भारत सरकार अच्छे से समझ रही है कि यह सब नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली के राजनीतिक अजेंडा का हिस्सा है और नेपाल सरकार के बातचीत वाले स्टैंड पर इसका खास असर नहीं होने वाला। भारत सरकार से जुड़े सरकारी सूत्र ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया से यह बात कही। सूत्र के मुताबिक, यह चीन के करीबी माने जाने वाले केपी ओली के राजनीतिक अजेंडा का हिस्साभर है। और इसका असर नेपाल सरकार के उस बयान पर नहीं पड़ेगा जिसमें उन्होंने बातचीत से इस मुद्दे को हल करने की बात कही है।
नेपाल-भारत के बीच सीमा विवाद पहले भी हुआ है। तब 1817 में नेपाल ने तिनकर, छंगरू, नाभि और कुथि गांवों पर अपना हक बताते हुए उनकी मांग की थी। काली नदी के पूर्व में पड़नेवाले दो गांव तो नेपाल को दे दिए गए लेकिन पश्चिम की तरफ पड़नेवाले गांव नाभि और कुथि को भारत ने उनका नहीं माना और दावे को खारिज कर दिया। काली नदी का स्रोत कहां से माना जाएगा यह भी तब ही तय हो गया था।
नेपाल का हालिया दावे में दम इसलिए भी नहीं है क्योंकि यह खुद चीन से उसकी सीमा को लेकर जो संधि है उससे मेल नहीं खाता। दूसरी तरफ नेपाल की तरफ से भारत के इलाकों में घुसने की कोशिश हुई है। उसने बिहार की तरफ कुछ इलाकों पर लोगों को बसाकर ऐसा किया है।
अपने दावे पर खुद नेपाल को भरोसा नहीं?
नेपाल ने नई सीमा का नक्शा को पास कर दिया लेकिन ऐसा लगता है कि उसके पास इसके कोई सबूत नहीं है, जिन्हें वह अब तलाशने की कोशिशों में लगा हुआ है। दरअसल, नेपाल ने 9 सदस्यों की कमिटी बनाई है। यह कमिटी कालापानी और सुस्ता इलाकों पर नेपाल के कथित दावे को पुख्ता करनेवाले एतिहासिक सबूत जुटाएंगी।
नेपाल की तरफ से चीन को खुश करने की राजनीति पर भारत का रुख साफ है। बताया गया है कि 1997, फिर 1998 में भी सीमा विवाद को सुलझाने की कोशिश हुई। फिर 8 मई को मानसरोवर रोड के उद्घाटन के बाद नेपाल ने आपत्ति जताई। इसके बाद भी सरकार ने बातचीत को रजामंदी दी थी।
नेपाल जिसे अबतक भारत का अच्छा दोस्त माना जाता रहा है उसने कल यानी शनिवार को अपनी संसद में विवादित बिल पास कर दिया है। यह बिल नेपाल के नए नक्शे को मान्यता देता है जिसमें रणनीतिक रूप से अहम तीन भारतीय इलाकों- लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाल ने अपने क्षेत्र में दिखाया है। लेकिन भारत सरकार अच्छे से समझ रही है कि यह सब नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली के राजनीतिक अजेंडा का हिस्सा है और नेपाल सरकार के बातचीत वाले स्टैंड पर इसका खास असर नहीं होने वाला।
नेपाल-भारत के बीच सीमा विवाद पहले भी हुआ है। तब 1817 में नेपाल ने तिनकर, छंगरू, नाभि और कुथि गांवों पर अपना हक बताते हुए उनकी मांग की थी। काली नदी के पूर्व में पड़नेवाले दो गांव तो नेपाल को दे दिए गए लेकिन पश्चिम की तरफ पड़नेवाले गांव नाभि और कुथि को भारत ने उनका नहीं माना और दावे को खारिज कर दिया। काली नदी का स्रोत कहां से माना जाएगा यह भी तब ही तय हो गया था।
नेपाल का हालिया दावे में दम इसलिए भी नहीं है क्योंकि यह खुद चीन से उसकी सीमा को लेकर जो संधि है उससे मेल नहीं खाता। दूसरी तरफ नेपाल की तरफ से भारत के इलाकों में घुसने की कोशिश हुई है। उसने बिहार की तरफ कुछ इलाकों पर लोगों को बसाकर ऐसा किया है।
अपने दावे पर खुद नेपाल को भरोसा नहीं?
नेपाल ने नई सीमा का नक्शा को पास कर दिया लेकिन ऐसा लगता है कि उसके पास इसके कोई सबूत नहीं है, जिन्हें वह अब तलाशने की कोशिशों में लगा हुआ है। दरअसल, नेपाल ने 9 सदस्यों की कमिटी बनाई है। यह कमिटी कालापानी और सुस्ता इलाकों पर नेपाल के कथित दावे को पुख्ता करनेवाले एतिहासिक सबूत जुटाएंगी।
नेपाल की तरफ से चीन को खुश करने की राजनीति पर भारत का रुख साफ है। बताया गया है कि 1997, फिर 1998 में भी सीमा विवाद को सुलझाने की कोशिश हुई। फिर 8 मई को मानसरोवर रोड के उद्घाटन के बाद नेपाल ने आपत्ति जताई। इसके बाद भी सरकार ने बातचीत को रजामंदी दी थी।