अभिजीत पाठक, प्रफेसर, जेएनयू
क्या भारत पर पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाने वाले देशभक्त नहीं हैं? यह सवाल सालों से उठ रहा है। इसके पक्ष-विपक्ष में तरह-तरह की दलीलें भी दी जाती हैं। विरोधी पक्ष की जीत पर जश्न मनाने का समर्थन करने वाले इसे खेल भावना का प्रोत्साहन और बड़े दिल का उदाहरण बताते हैं। वहीं, विरोध में दलील दी जाती है कि जिसे भी अपने देश से लगाव होगा उसे कभी दूसरे देश से मिली हार से खुशी नहीं मिल सकती है, देशप्रेमियों को मायूसी ही होगी। हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया (ToI) के मशहूर कॉलम टाइम्स फेस ऑफ (Times Face Off) में भी इसी मुद्दे को उठाया गया है। इसके लिए जेएनयू में समाजशास्त्र (Sociology) के प्रफेसर अभिजीत पाठक और आईपीएस नजमूल होदा ने अपने-अपने विचार रखे हैं (इसे यहां पढ़ें)। समाजशास्त्री अभिजीत पाठक का मानना है कि T20 वर्ल्ड कप क्रिकेट मैच में पाकिस्तान के हाथों भारत की हार पर जश्न मनाने वाले देशद्रोही या गद्दार नहीं हैं, बल्कि उन्हें खेल भावना की कद्र है।
खेल को युद्ध क्यों बना दिया?
पाठक ताजा विवाद को जहरीले राष्ट्रवाद की देन बताते हैं। उन्होंने अपने लेख की शुरुआत इस बात से की, 'हमने किस तरह की बदसूरत दुनिया बना ली है! जहरीले राष्ट्रवाद, बेफिक्र एवं गैर-जिम्मेदार टेलीविजन चैनल और दिखावटी देशभक्ति के प्रसार के साथ हमने एक खेल को युद्ध या सर्जिकल स्ट्राइक का रूप दे दिया। यह क्रिकेट के नाम पर पागलपन है और कुछ नहीं।'
जेएनयू प्रफेसर ने कहा कि पाकिस्तान की जीत का कथित समर्थन करने पर तीन कश्मीरी छात्रों पर राजद्रोह का मुकदमा और वो जहर जिसे ट्रोल आर्मी एक समुदाय के खिलाफ फैलाने से कभी नहीं थकती है, दरअसल असली साहस के प्रदर्शन की भावना के अभाव का प्रतीक है। इनमें खेल को खेल की तरह लेने, जीत या हार को पचा पाने और विरोधी टीम की अच्छाइयों की भी प्रशंसा कर सकने का साहस नहीं है।
पाकिस्तान का समर्थन अपराध नहीं, दिलेरी!
हम अपने आसपास जो हिंसा और असहिष्णुता देख रहे हैं, वो हमारे सामूहिक पतन का प्रतीक है। चूंकि मैं अपने विवेक को मार नहीं सकता, इसलिए मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि अच्छा क्रिकेट खेलने पर पाकिस्तान की प्रशंसा करना किसी भी नजरिए से अपराध नहीं हो सकता है। बल्कि इससे यह साबित होता है कि हमारी देशभक्ति इतनी छिछली या कमजोर नहीं है कि पाकिस्तान टीम की अच्छाई की सराहना कर देने भर से ही इसमें दरार आ जाएगी।
दुनियाभर में बेहद प्रतिस्पर्धी और बाजार समर्थित खेल आयोजन होते हैं जिनको लेकर मीडिया में खूब हौवा खड़ा किया जाता है जिनसे राष्ट्रवादी भावनाओं का उभार होता है। यही वजह है कि वाराणसी में एक पुजारी से लेकर मुंबई गलियों के वेंडरों तक, बॉलिवुड के कलाकारों से लेकर बेंगलुरु में सॉफ्टवेयर इंजीनियर तक- सभी को क्रिकेट या हॉकी में भारत के हाथों पाकिस्तान की करारी हार की स्वाभाविक चाहत होती है। इसे दूसरी तरफ से लेना और स्वघोषित देशभक्तों द्वारा आपत्ति जताना बिल्कुल मूर्खता है।
मुसलमानों में दुश्मन ढूंढने की प्रवृत्ति
पाठक कहते हैं कि अगर यह मान भी लिया जाए कि जब पाकिस्तान से मिली हार से चौतरफा मायूसी फैली हो, तब जश्न मनाना अच्छा नहीं लगता, फिर भी मैं यह नहीं मान सकता कि यह आपराधिक या राजद्रोह का कृत्य है। वो कहते हैं, 'मैं इस पागलपन का एक और कारण से विरोध करता हूं। दरअसल, यह उन्माद उस जहरीले राष्ट्रवाद और आक्रामकता का प्रतीक है जो अपने मुस्लिम पड़ोसियों से लेकर जेएनयू या जामिया मिलिया इस्लामिया के राजनीतिक समझ से समृद्ध छात्र तक और शाहीन बाग की दादियों से लेकर स्टैन स्वामी जैसे लोगों तक- के खिलाफ निरंतर साजिश के सिद्धांत (Conspiracy Theories) गढ़ते रहने और देश के 'दुश्मनों' की तलाश करके उसे खतरे के रूप में चित्रित करते रहने को प्रेरित करता है।
चूंकि भय का सारा कारोबार 'राष्ट्रीय सुरक्षा' के नाम पर होता है, इसलिए वैसा कोई भी व्यक्ति जो सोच सकता है, उसका इजहार कर सकता है और भेड़चाल की धारा में बहने वाली मानसिकता को खारिज करता है, उसे संभावित खतरे के रूप में देखा जाता है। रचनात्मकता के रंग में रंगे किसी भी आलोचनात्मक आवाज पर कोई ना कोई मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है।
मौजूदा दौर में सामान्य हो गई असहिष्णुता: प्रफेसर पाठक
कोई हैरत की बात नहीं कि हमें क्रिकेट को सिर्फ जहरीले राष्ट्रवाद के आईने और युद्धवादी मानसिकता से ही देखने को कहा जाता है। मौजूदा दौर में यह परंपरागत असहिष्णुता या पागलपन की मानसिकता सामान्य अवधारणा (New Normal) बनती दिख रही है। इसलिए, भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान देशभक्ति के पर्दर्शन की जबर्दस्ती को आइसोलेशन में नहीं देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह हिंदुत्व को जय श्रीराम के नारों तक या 'देशभक्ति' की तरह-तरह की परिभाषाओं को प्रोत्साहन देने की सोच से इतर नहीं है।
पाठक का मानना है कि इस तरह की सोच से रबींद्रनाथ टैगोर और मोहनदास करमचंद गांधी की उन कल्पनाओं को झटका लगता है जिनमें बहुलतावादी समाज और विविधता से भरे आदर्श सहिष्णु भारत का निर्माण होना है। वो कहते हैं, 'मुझे डर है कि आखिरकार अधिनायकवादी राष्ट्रवाद के नाम पर अपने सपनों को भूल जाने वाला समाज बच्चों के दिमाग में हिंसा के बीज बोने लगता है। एक शिक्षक के रूप में यह मुझे कतई बर्दाश्त नहीं।'
पाकिस्तान की जीत पर पटाखे फोड़ने वालों की देशभक्ति पर संदेह क्यों? जानें IPS नजमुल होदा की दलीलें
क्या भारत पर पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाने वाले देशभक्त नहीं हैं? यह सवाल सालों से उठ रहा है। इसके पक्ष-विपक्ष में तरह-तरह की दलीलें भी दी जाती हैं। विरोधी पक्ष की जीत पर जश्न मनाने का समर्थन करने वाले इसे खेल भावना का प्रोत्साहन और बड़े दिल का उदाहरण बताते हैं। वहीं, विरोध में दलील दी जाती है कि जिसे भी अपने देश से लगाव होगा उसे कभी दूसरे देश से मिली हार से खुशी नहीं मिल सकती है, देशप्रेमियों को मायूसी ही होगी।
खेल को युद्ध क्यों बना दिया?
पाठक ताजा विवाद को जहरीले राष्ट्रवाद की देन बताते हैं। उन्होंने अपने लेख की शुरुआत इस बात से की, 'हमने किस तरह की बदसूरत दुनिया बना ली है! जहरीले राष्ट्रवाद, बेफिक्र एवं गैर-जिम्मेदार टेलीविजन चैनल और दिखावटी देशभक्ति के प्रसार के साथ हमने एक खेल को युद्ध या सर्जिकल स्ट्राइक का रूप दे दिया। यह क्रिकेट के नाम पर पागलपन है और कुछ नहीं।'
जेएनयू प्रफेसर ने कहा कि पाकिस्तान की जीत का कथित समर्थन करने पर तीन कश्मीरी छात्रों पर राजद्रोह का मुकदमा और वो जहर जिसे ट्रोल आर्मी एक समुदाय के खिलाफ फैलाने से कभी नहीं थकती है, दरअसल असली साहस के प्रदर्शन की भावना के अभाव का प्रतीक है। इनमें खेल को खेल की तरह लेने, जीत या हार को पचा पाने और विरोधी टीम की अच्छाइयों की भी प्रशंसा कर सकने का साहस नहीं है।
पाकिस्तान का समर्थन अपराध नहीं, दिलेरी!
हम अपने आसपास जो हिंसा और असहिष्णुता देख रहे हैं, वो हमारे सामूहिक पतन का प्रतीक है। चूंकि मैं अपने विवेक को मार नहीं सकता, इसलिए मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि अच्छा क्रिकेट खेलने पर पाकिस्तान की प्रशंसा करना किसी भी नजरिए से अपराध नहीं हो सकता है। बल्कि इससे यह साबित होता है कि हमारी देशभक्ति इतनी छिछली या कमजोर नहीं है कि पाकिस्तान टीम की अच्छाई की सराहना कर देने भर से ही इसमें दरार आ जाएगी।
दुनियाभर में बेहद प्रतिस्पर्धी और बाजार समर्थित खेल आयोजन होते हैं जिनको लेकर मीडिया में खूब हौवा खड़ा किया जाता है जिनसे राष्ट्रवादी भावनाओं का उभार होता है। यही वजह है कि वाराणसी में एक पुजारी से लेकर मुंबई गलियों के वेंडरों तक, बॉलिवुड के कलाकारों से लेकर बेंगलुरु में सॉफ्टवेयर इंजीनियर तक- सभी को क्रिकेट या हॉकी में भारत के हाथों पाकिस्तान की करारी हार की स्वाभाविक चाहत होती है। इसे दूसरी तरफ से लेना और स्वघोषित देशभक्तों द्वारा आपत्ति जताना बिल्कुल मूर्खता है।
मुसलमानों में दुश्मन ढूंढने की प्रवृत्ति
पाठक कहते हैं कि अगर यह मान भी लिया जाए कि जब पाकिस्तान से मिली हार से चौतरफा मायूसी फैली हो, तब जश्न मनाना अच्छा नहीं लगता, फिर भी मैं यह नहीं मान सकता कि यह आपराधिक या राजद्रोह का कृत्य है। वो कहते हैं, 'मैं इस पागलपन का एक और कारण से विरोध करता हूं। दरअसल, यह उन्माद उस जहरीले राष्ट्रवाद और आक्रामकता का प्रतीक है जो अपने मुस्लिम पड़ोसियों से लेकर जेएनयू या जामिया मिलिया इस्लामिया के राजनीतिक समझ से समृद्ध छात्र तक और शाहीन बाग की दादियों से लेकर स्टैन स्वामी जैसे लोगों तक- के खिलाफ निरंतर साजिश के सिद्धांत (Conspiracy Theories) गढ़ते रहने और देश के 'दुश्मनों' की तलाश करके उसे खतरे के रूप में चित्रित करते रहने को प्रेरित करता है।
चूंकि भय का सारा कारोबार 'राष्ट्रीय सुरक्षा' के नाम पर होता है, इसलिए वैसा कोई भी व्यक्ति जो सोच सकता है, उसका इजहार कर सकता है और भेड़चाल की धारा में बहने वाली मानसिकता को खारिज करता है, उसे संभावित खतरे के रूप में देखा जाता है। रचनात्मकता के रंग में रंगे किसी भी आलोचनात्मक आवाज पर कोई ना कोई मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है।
मौजूदा दौर में सामान्य हो गई असहिष्णुता: प्रफेसर पाठक
कोई हैरत की बात नहीं कि हमें क्रिकेट को सिर्फ जहरीले राष्ट्रवाद के आईने और युद्धवादी मानसिकता से ही देखने को कहा जाता है। मौजूदा दौर में यह परंपरागत असहिष्णुता या पागलपन की मानसिकता सामान्य अवधारणा (New Normal) बनती दिख रही है। इसलिए, भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान देशभक्ति के पर्दर्शन की जबर्दस्ती को आइसोलेशन में नहीं देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह हिंदुत्व को जय श्रीराम के नारों तक या 'देशभक्ति' की तरह-तरह की परिभाषाओं को प्रोत्साहन देने की सोच से इतर नहीं है।
पाठक का मानना है कि इस तरह की सोच से रबींद्रनाथ टैगोर और मोहनदास करमचंद गांधी की उन कल्पनाओं को झटका लगता है जिनमें बहुलतावादी समाज और विविधता से भरे आदर्श सहिष्णु भारत का निर्माण होना है। वो कहते हैं, 'मुझे डर है कि आखिरकार अधिनायकवादी राष्ट्रवाद के नाम पर अपने सपनों को भूल जाने वाला समाज बच्चों के दिमाग में हिंसा के बीज बोने लगता है। एक शिक्षक के रूप में यह मुझे कतई बर्दाश्त नहीं।'
पाकिस्तान की जीत पर पटाखे फोड़ने वालों की देशभक्ति पर संदेह क्यों? जानें IPS नजमुल होदा की दलीलें