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तब घर में बिना लाइसेंस रेडियो रखना होता था अपराध, समय से रिन्‍यू न कराने पर लगता था फाइन

बात उन दिनों की है जब रेडियो घर की शान होता था। लोग जान छ‍िड़कते थे इस पर। कोई इजाजत के बगैर रेडियो छू लेता था दिल में कड़कन सी होती थी। तब रेडियो का शौक अपने शबाब पर होता था। इस शौक कीमत चुकानी पड़ती थी। सिर्फ रेडियो ले लेना ही काफी नहीं था, इसे रखने के लिए लाइसेंस फीस भी देनी पड़ती थी।

Curated byअमित शुक्‍ला | नवभारतटाइम्स.कॉम 6 Oct 2022, 5:46 pm
नई दिल्‍ली: एक जमाने में रेडियो (Radio) का जबर्दस्‍त क्रेज था। रेडियो घर की शान होता था। शादी-ब्‍याह में दामाद को रेडियो गिफ्ट में दिया जाता था। न दिया जाए तो दामाद जी बिफर जाते थे। बड़े नाज-नखरों के साथ इसे लोग रखते थे। अपने रेडियो से छेड़छाड़ लोगों को बिल्‍कुल पसंद नहीं थी। यह उस जमाने की बात है जब रेडियो को घर में रखने के लिए लाइसेंस की जरूरत पड़ती थी। चौंक गए न? लेकिन, यह सच है। 60-70 के दशक में रेडियो को बिना लाइसेंस (Radio without license) रखना अपराध होता था। इस लाइसेंस को समय से रिन्‍यू कराना पड़ता था। समय से लाइसेंस रिन्‍यू नहीं कराने पर फाइन वसूला जाता था। इस फाइन को सरचार्ज के तौर पर लिया जाता था। डाकघरों (Post Office) में ये लाइसेंस रिन्‍यू होते थे। यानी रेडियो खरीदने के बाद भी इसे रखने का खर्च उठाना पड़ता था। 1991 तक रेडियो पर यह फीस ली जाती थी।
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उस जमाने में रेडियो ही मनोरंजन और सूचनाओं को पाने का एक मात्र जरिया होता था। रेडियो का क्रेज होता था। गांवों में तो इक्‍का-दुक्‍का घरों में ही रेडियो होता था। चौपालों में पेड़ पर रेडियो टंग जाता था और इसके इर्द-गिर्द लोग बैठ जाते थे। जब तक प्रसारण चलता था, वे सुनते रहते थे। तब शहरों में भी सबके यहां रेडियो नहीं होते थे। जिनके पास होते थे, उनकी छाती चौड़ी रहती थी। यह 60 के दशक की बातें हैं।

रेडियो का था अतिर‍िक्‍त खर्च
हालांकि, रेडियो को खरीद लेना ही काफी नहीं होता था। इसे घर पर रखने के लिए अतिरिक्‍त खर्च उठाना पड़ता था। उन दिनों मान्‍य लाइसेंस के बिना रेडियो रखना अपराध होता था। अगर कोई समय से पुराने लाइसेंस को रिन्‍यू नहीं करा पाता था तो उसे पेनाल्‍टी देनी पड़ती थी। यह पेनाल्‍टी सरचार्ज के तौर पर वसूली जाती थी। भारतीय डाक एवं तार विभाग रेडियो का नया लाइसेंस जारी करता था। इसे रिन्‍यू भी यहीं कराया जाता था।


साल में इतनी लगती थी फीस
टीवी से पहले तक रेडियो ही मनोरंजन की दुनिया थी। लोग खबरों, क्रिकेट कॉमेंट्री और म्‍यूजिक सुनने के लिए रेडियो लिया करते थे। इसने ऑल इंडिया रेडियो की लोकप्रियता को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था। एंटरटेनमेंट के दीवानों के लिए रेडियो सबकुछ होता था। रेडियो पर लाइसेंस फीस वसूलने का दौर कई दशक तक चला। 1960 के दशक में लोगों को ब्रॉडकास्‍ट रिसीवर्स लाइसेंस (BRL) लेने के लिए हर साल 10 रुपये फीस देनी पड़ती थी। 1970 के दशक में इस फीस को बढ़ाकर 15 रुपये कर दिया गया था। 1991 में भारत में रेडियो लाइसेंस को खत्‍म कर दिया गया था।


पुराना है रेडियो का इत‍िहास
भारत में 1967 में विविध भारती के साथ कमर्शियल रेडियो की शुरुआत हुई थी। विविध भारती का मुख्‍यालय मुंबई में था। 1977 में मद्रास (अब चेन्‍नई) से एफएम ब्रॉडकास्टिंग की शुरुआत हुई थी। 1990 के दशक तक एआईआर ही एफएम की दुनिया में छाया हुआ था। लेकिन, बाद में निजी ब्रॉडकास्‍टर भी एफएम स्‍लॉट लेने लगे।


1994 में रेडियो डिजिटल हो गया। तब इंटरनेट के जरिये रेडियो स्‍ट्रीमिंग होने लगी। इसके साथ ही पहले इंटरनेट-ओनली 24 आवर्स रेडियो स्‍टेशन की शुरुआत हुई थी। भारत में रेडियो ने आपदा प्रबंधन के साथ शिक्षा और सूचनाओं के प्रसार में बड़ी भूमिका निभाई है। देश में रेडियो ब्रॉडकास्टिंग का इतिहास आजादी से पहले का है। अगस्‍त 1920 में पहला रेडियो ब्रॉडकास्‍ट हुआ था। यह छत की बिल्डिंग से हुआ था। इसके तीन साल बाद पहला रेडियो प्रोग्राम रेडियो क्‍लब ऑफ बॉम्‍बे से प्रसारित हुआ था। 1923 से 1924 के बीच तीन रेडियो क्‍लब स्‍थापित हो गए थे। ये बॉम्‍बे, कलकत्‍ता और मद्रास में थे। देश में रेडियो ब्रॉडकास्टिंग प्राइवेट वेंचर के तौर पर शुरू हुई थी।
लेखक के बारे में
अमित शुक्‍ला
पत्रकारिता और जनसंचार में पीएचडी की। टाइम्‍स इंटरनेट में रहते हुए नवभारतटाइम्‍स डॉट कॉम से पहले इकनॉमिकटाइम्‍स डॉट कॉम में सेवाएं दीं। पत्रकारिता में 15 साल से ज्‍यादा का अनुभव। फिलहाल नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में असिस्‍टेंट न्‍यूज एडिटर के रूप में कार्यरत। टीवी टुडे नेटवर्क, दैनिक जागरण, डीएलए जैसे मीडिया संस्‍थानों के अलावा शैक्षणिक संस्थानों के साथ भी काम किया। इनमें शिमला यूनिवर्सिटी- एजीयू, टेक वन स्कूल ऑफ मास कम्युनिकेशन, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय (नोएडा) शामिल हैं। लिंग्विस्‍ट के तौर पर भी पहचान बनाई। मार्वल कॉमिक्स ग्रुप, सौम्या ट्रांसलेटर्स, ब्रह्मम नेट सॉल्यूशन, सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी और लिंगुअल कंसल्टेंसी सर्विसेज समेत कई अन्य भाषा समाधान प्रदान करने वाले संगठनों के साथ फ्रीलांस काम किया। प्रिंट और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म में समान रूप से पकड़। देश-विदेश के साथ बिजनस खबरों में खास दिलचस्‍पी।... और पढ़ें

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