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Supreme Court: मृत्युपूर्व बयान पर सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी- अगर यह विश्वसनीय तो किसी और सबूत की जरूरत नहीं, संदिग्ध तो कोई मतलब नहीं

क्या मृत्युपूर्व बयान को हर हाल में पुख्ता साक्ष्य के तौर पर देखा जाना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अहम टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि मृत्युपूर्व बयान को स्वीकार करने या खारिज करने का कोई सख्त पैमाना नहीं हो सकता। अगर वह विश्वसनीय है तो बिना किसी और सबूत के दोषसिद्धि का आधार हो सकता है, अगर नहीं तो उसे खारिज किया जा सकता है।

भाषा 27 Mar 2021, 6:00 pm
नई दिल्ली
नवभारतटाइम्स.कॉम SUPREME-COURT

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी एक टिप्पणी में कहा है कि मौत से पहले दिए गए बयान को स्वीकार या खारिज करने के लिये कोई 'सख्त पैमाना या मानदंड' नहीं हो सकता। मृत्युपूर्व दिया गया बयान अगर मर्जी से दिया गया है और यह विश्वास करने योग्य हो तो बिना किसी और साक्ष्य के भी दोषसिद्धि का आधार हो सकता है। कोर्ट ने कहा कि अगर ऐसे विरोधाभास हैं, जिनसे मृत्युपूर्व बयान की सत्यता और विश्वसनीयता पर संदेह पैदा होता है तब आरोपी को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए।

जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस कृष्ण मुरारी की बेंच ने अपने फैसले में यह बात कहते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के 2011 के फैसले को चुनौती देने वाली एक याचिका को खारिज कर दिया। हाई कोर्ट ने एक महिला पर अत्याचार और उसकी हत्या के दो आरोपियों को बरी करने के फैसले को बरकरार रखा था।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने 25 मार्च 2021 के आदेश में कहा, 'भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अनुच्छेद 32 के तहत मृत्युपूर्व बयान साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य है। अगर यह स्वेच्छा से दिया गया हो और विश्वास पैदा करने वाला हो तो यह अकेले दोषसिद्धि का आधार बन सकता है।'

कोर्ट ने कहा, 'अगर इसमें विरोधाभास, अंतर हो या इसकी सत्यता संदेहास्पद हो, प्रामाणिकता व विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाली हो या मृत्युपूर्व बयान संदिग्ध हो या फिर आरोपी मृत्युपूर्व बयान के बारे में में संदेह पैदा करने ही नहीं बल्कि मृत्यु के तरीके व प्रकृति को लेकर संदेह पैदा करने की स्थिति में सफल होता है तो आरोपी को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए।'

बेंच ने कहा, 'इसलिए, काफी चीजें मामले के तथ्यों पर निर्भर करती हैं। मृत्युपूर्व बयान को स्वीकार या खारिज करने के लिये कोई सख्त पैमाना या मापदंड नहीं हो सकता।'

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