लखनऊ: यूपी बोर्ड रिजल्ट (UP Board Result 2023) की तारीख आ गई है। 10वीं और 12वीं बोर्ड परीक्षा का परिणाम 25 अप्रैल को आएगा। कभी यूपी बोर्ड का रिजल्ट मोहल्ले भर में एक इवेंट हुआ करता था। इसके आने से पहले स्टूडेंट और उनके पैरेंट्स के हलक सूख जाते थे। रिजल्ट पेपर में छपकर आया करता था। अखबार की एक कॉपी 20-20 रुपये में बिका करती थी। एक-एक रोल नंबर देखने के लिए 5-5 रुपये वसूल लिए जाते थे। बच्चे के साथ पूरा मोहल्ला उसे घेरकर खड़ा हो जाता था। अखबार में स्कूल और कॉलेज के नाम के नीचे रोल नंबर के साथ F (फर्स्ट), S (सेकंड), T (थर्ड) और W (विदहेल्ड) लिखा होता था। बच्चे नर्वस और मोहल्ला रोमांचित दिखता था। यह 90 और उससे पहले का वह दौर था जब यूपी बोर्ड का रिजल्ट 20 से 25 परसेंट या उससे भी कम आता था। यूपी बोर्ड की परीक्षा पास करना किसी जंग को जीतने से कम नहीं होता था। फर्स्ट आने वाले स्टूडेंट्स की गिनती बहुत कम होती थी। जो फर्स्ट आते थे हीरो बन जाते थे। कई जगह उन्हें 50 रुपये का इनाम तक दिया जाता था। सेकेंड वालों के लिए यह 25 रुपये हुआ करता था। बोर्ड में ज्यादातर बच्चों की लुटिया डूबी रहती थी। उस दौर में नहीं होता था इंटरनेट और मोबाइल
यूपी बोर्ड के रिजल्ट की तारीखों का ऐलान होते ही हर बार लोगों को उस पुराने दौर की यादें ताजा हो जाती हैं। वह दौर भुलाए नहीं भूलता है। रिजल्ट आने से पहले की टेंशन, पेपर की एक कॉपी पाने की जद्दोजहद, मोहल्ले भर का हीरो या एकदम से जीरो बन जाने की कश्मकश, रोमांच। इससे बहुत कुछ जुड़ा होता था। उस जमाने में न फोन होते थे न इंटरनेट। अक्सर रिजल्ट शाम को आता था। यह अखबार में छपता था। रिजल्ट आते ही हंगामा मच जाता था। आवाजें सुनाई देने लगती थीं। बोर्ड का रिजल्ट आ गया.. बोर्ड का रिजल्ट आ गया। यह आवाज मोहल्लेभर का रोमांच बढ़ा देती थी। उस दौर में हर किसी को पता होता था कि शर्मा जी का बच्चा 10वीं में है या पड़ोसी वर्मा जी का।
अखबार की एक कॉपी पाने के लिए होती थी जद्दोजहद
इसके तुरंत बाद अखबार की एक कॉपी पाने के लिए जद्दोजहद का सिलसिला शुरू होता था। अखबार की यह कॉपी खास तरह की होती थी। इसमें अमूमन कोई विज्ञापन नहीं होता था। सिर्फ बच्चों का रोल नंबर, उनका कॉलेज-स्कूल और रोल नंबर के आगे उनकी डिवीजन लिखी होती थी। कई मर्तबा प्रिंटिंग मिस्टेक में फर्स्ट का सेकेंड और सेकेंड का फर्स्ट हो जाता था। कुछ का पेपर में डब्बा गुल होता था। लेकिन, कॉलेज में मार्कशीट लेने पर नतीजा अलग होता था। पेपर में टॉपरों की लिस्ट अलग से छपी होती थी।
ज्यादातर लोग नहीं पास कर पाते थे बोर्ड की परीक्षा
उन दिनों आज की तरह रिजल्ट का पर्सेंटेज बहुत हाई नहीं हुआ करता था। कॉपियां बड़ी सख्ती से जांची जाती थीं। ज्यादातर लोगों का बोर्ड में डब्बा गुल ही होता था। कई लोग तो तीन-तीन चार-चार अटेम्प्ट में बोर्ड परीक्षा पास कर पाते थे। जब अखबार की एक कॉपी किसी तरह हाथ आती थी तो उसी से सैकड़ों कैंडिडेट के रिजल्ट देख लिए आते थे। उस दिन इस एक कॉपी के लिए जबर्दस्त मारामारी रहती थी। अमूमन यह ब्लैक में ही 20 से 25 रुपये तक मिलता था। एक बच्चे से रिजल्ट दिखाई 5 रुपये तक वसूल लिए जाते थे। सारा क्रेज घंटे दो घंटे का ही रहता था। उसके बाद धीरे-धीरे कई लोगों के पास अखबार पहुंच जाता था। लेकिन, उन चंद घंटों में ही हर किसी को रिजल्ट देखने की धुकधुकी रहती थी। रोमांच ऊफान पर पहुंच जाता था।
अखबार में लिखे होते थे कोड, कभी-कभी होती थी चूक
अखबार में स्कूल और कॉलेज के नाम के नीचे रोल नंबर के साथ F (फर्स्ट), S (सेकंड), T (थर्ड) और W (विदहेल्ड) लिखे होते थे। यह बोर्ड में स्टूडेंट की रैंक दिखाते थे। उस जमाने में बोर्ड में पास हो जाना ही टेढ़ी खीर हुआ करती थी। फिर जो फर्स्ट आ जाए तो कहने ही क्या! एक मिनट में वह पूरे मोहल्ले का हीरो हो जाता था। लोग उछल-उछलकर शाबाशी देने लगते थे। कुछ जगह इनाम के तौर पर 50 रुपये तक दिए जाते थे। कैंडिडेट के एक्चुअल परसेंटेज का पेपर में जिक्र नहीं होता था। इसकी डिटेल्स हाथ में मार्कशीट आने पर ही लगती थी। जो सेकेंड आता था, उसको भी लोग सराहते थे। कुछ जगह उन्हें 25 रुपये बतौर इनाम मिलता था।
यूपी बोर्ड के रिजल्ट की तारीखों का ऐलान होते ही हर बार लोगों को उस पुराने दौर की यादें ताजा हो जाती हैं। वह दौर भुलाए नहीं भूलता है। रिजल्ट आने से पहले की टेंशन, पेपर की एक कॉपी पाने की जद्दोजहद, मोहल्ले भर का हीरो या एकदम से जीरो बन जाने की कश्मकश, रोमांच। इससे बहुत कुछ जुड़ा होता था। उस जमाने में न फोन होते थे न इंटरनेट। अक्सर रिजल्ट शाम को आता था। यह अखबार में छपता था। रिजल्ट आते ही हंगामा मच जाता था। आवाजें सुनाई देने लगती थीं। बोर्ड का रिजल्ट आ गया.. बोर्ड का रिजल्ट आ गया। यह आवाज मोहल्लेभर का रोमांच बढ़ा देती थी। उस दौर में हर किसी को पता होता था कि शर्मा जी का बच्चा 10वीं में है या पड़ोसी वर्मा जी का।
अखबार की एक कॉपी पाने के लिए होती थी जद्दोजहद
इसके तुरंत बाद अखबार की एक कॉपी पाने के लिए जद्दोजहद का सिलसिला शुरू होता था। अखबार की यह कॉपी खास तरह की होती थी। इसमें अमूमन कोई विज्ञापन नहीं होता था। सिर्फ बच्चों का रोल नंबर, उनका कॉलेज-स्कूल और रोल नंबर के आगे उनकी डिवीजन लिखी होती थी। कई मर्तबा प्रिंटिंग मिस्टेक में फर्स्ट का सेकेंड और सेकेंड का फर्स्ट हो जाता था। कुछ का पेपर में डब्बा गुल होता था। लेकिन, कॉलेज में मार्कशीट लेने पर नतीजा अलग होता था। पेपर में टॉपरों की लिस्ट अलग से छपी होती थी।
ज्यादातर लोग नहीं पास कर पाते थे बोर्ड की परीक्षा
उन दिनों आज की तरह रिजल्ट का पर्सेंटेज बहुत हाई नहीं हुआ करता था। कॉपियां बड़ी सख्ती से जांची जाती थीं। ज्यादातर लोगों का बोर्ड में डब्बा गुल ही होता था। कई लोग तो तीन-तीन चार-चार अटेम्प्ट में बोर्ड परीक्षा पास कर पाते थे। जब अखबार की एक कॉपी किसी तरह हाथ आती थी तो उसी से सैकड़ों कैंडिडेट के रिजल्ट देख लिए आते थे। उस दिन इस एक कॉपी के लिए जबर्दस्त मारामारी रहती थी। अमूमन यह ब्लैक में ही 20 से 25 रुपये तक मिलता था। एक बच्चे से रिजल्ट दिखाई 5 रुपये तक वसूल लिए जाते थे। सारा क्रेज घंटे दो घंटे का ही रहता था। उसके बाद धीरे-धीरे कई लोगों के पास अखबार पहुंच जाता था। लेकिन, उन चंद घंटों में ही हर किसी को रिजल्ट देखने की धुकधुकी रहती थी। रोमांच ऊफान पर पहुंच जाता था।
अखबार में लिखे होते थे कोड, कभी-कभी होती थी चूक
अखबार में स्कूल और कॉलेज के नाम के नीचे रोल नंबर के साथ F (फर्स्ट), S (सेकंड), T (थर्ड) और W (विदहेल्ड) लिखे होते थे। यह बोर्ड में स्टूडेंट की रैंक दिखाते थे। उस जमाने में बोर्ड में पास हो जाना ही टेढ़ी खीर हुआ करती थी। फिर जो फर्स्ट आ जाए तो कहने ही क्या! एक मिनट में वह पूरे मोहल्ले का हीरो हो जाता था। लोग उछल-उछलकर शाबाशी देने लगते थे। कुछ जगह इनाम के तौर पर 50 रुपये तक दिए जाते थे। कैंडिडेट के एक्चुअल परसेंटेज का पेपर में जिक्र नहीं होता था। इसकी डिटेल्स हाथ में मार्कशीट आने पर ही लगती थी। जो सेकेंड आता था, उसको भी लोग सराहते थे। कुछ जगह उन्हें 25 रुपये बतौर इनाम मिलता था।