लखनऊ
लोकसभा चुनाव के पहले कैराना और नूरपुर में हो रहे उपचुनाव में बीजेपी की साख दांव पर लगी है। एक बार फिर संयुक्त विपक्ष की भूमिका बनने के साथ लड़ाई सीधी हो गई है और जातीय समीकरण निर्णायक। फिलहाल, बीजेपी अपने उम्मीदवारों की आधिकारिक घोषणा मंगलवार को करेगी जबकि नामांकन इस सप्ताह के आखिर में होगा।
कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा दोनों ही सीटें सांसद और विधायक के निधन के कारण खाली हुई हैं। इसलिए उम्मीदवारी को लेकर बीजेपी की तस्वीर साफ है। कैराना से हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह और नूरपुर से लोकेंद्र सिंह की पत्नी को टिकट दिया जाना है। इसकी आधिकारिक घोषणा मंगलवार को होगी। पार्टी की तैयारी नौ मई को कैराना और 10 मई को नूरपुर में नामांकन की है।
मुद्दों और मेहनत के असर की उम्मीद
बीजेपी के बड़े नेता अंदरखाने यह मान रहे हैं कि पार्टी के लिए दोनों सीटें उपचुनाव में काफी मुश्किल हैं। जाटव-मुस्लिम वोटरों की प्रभावी संख्या और विपक्ष से सीधी लड़ाई के कारण भी बीजेपी की दिक्कत बढ़ गई है। 2009 में बीएसपी से सांसद रहीं तब्स्सुम इस बार सपी कोटे से रालोद की उम्मीदवार हैं। वहीं, नूरपुर से नईमुल हसन सपी के उम्मीदवार हैं। दोनों सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार होने के कारण बीजेपी ध्रुवीकरण की संभावना तलाश रही है।
जिन्ना प्रकरण को लेकर उठी आग
अलीगढ़ में जिन्ना प्रकरण को लेकर उठी आग से लेकर पलायन तक के मुद्दों के जरिए इसमें आंच लाने की तैयारी है। इसके साथ ही पार्टी पसीना भी खूब बहा रही है। प्रदेश उपाध्यक्ष नवाब सिंह नागर, संजीव बालियान सहित दूसरे नेता वहीं जुटे हैं। संगठन महामंत्री सुनील बंसल और पश्चिम क्षेत्र के प्रभारी व एमएलसी विजय बहादुर पाठक भी कैराना-नूरपुर मथ चुके हैं। प्रदेश महामंत्री एवं एमएलसी अशोक कटारिया भी दो दिन से वहीं जमे हैं। संगठनात्मक संरचना को दुरुस्त करने और अपने वोटरों को अधिक से अधिक बाहर निकालने से ही पार्टी की राह बनने की उम्मीद है।
मुद्दों का लिटमेस टेस्ट भी
2014 एवं 2017 के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण ने बीजेपी की राह आसान की थी। हालांकि, जिस कैराना से पलायन की जिन्न निकला था, वहीं पार्टी नहीं जीत पाई थी। ऐसे में यह चुनाव एक बार भी ध्रुवीकरण के मुद्दे का लिटमेस टेस्ट होगा। खासकर सपी-बीएसपी के एक मंच पर आने के बाद बनने वाले जातीय गठजोड़ की काट तलाशने के लिए पार्टी के पास दो ही रास्ते हैं। पहला चुनाव को विकास की पिच पर लड़ा जाए, जिससे जातीय मुद्दे गौण हों। हालांकि, विकास को चेहरा तो बनाया जा सकता है, लेकिन इसके चुनावी असर की गुजाइशें कमजोर हैं। ऐसे में जाति का तोड़ धर्म ही बनता है।
लोकसभा चुनाव के पहले कैराना और नूरपुर में हो रहे उपचुनाव में बीजेपी की साख दांव पर लगी है। एक बार फिर संयुक्त विपक्ष की भूमिका बनने के साथ लड़ाई सीधी हो गई है और जातीय समीकरण निर्णायक। फिलहाल, बीजेपी अपने उम्मीदवारों की आधिकारिक घोषणा मंगलवार को करेगी जबकि नामांकन इस सप्ताह के आखिर में होगा।
कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा दोनों ही सीटें सांसद और विधायक के निधन के कारण खाली हुई हैं। इसलिए उम्मीदवारी को लेकर बीजेपी की तस्वीर साफ है। कैराना से हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह और नूरपुर से लोकेंद्र सिंह की पत्नी को टिकट दिया जाना है। इसकी आधिकारिक घोषणा मंगलवार को होगी। पार्टी की तैयारी नौ मई को कैराना और 10 मई को नूरपुर में नामांकन की है।
मुद्दों और मेहनत के असर की उम्मीद
बीजेपी के बड़े नेता अंदरखाने यह मान रहे हैं कि पार्टी के लिए दोनों सीटें उपचुनाव में काफी मुश्किल हैं। जाटव-मुस्लिम वोटरों की प्रभावी संख्या और विपक्ष से सीधी लड़ाई के कारण भी बीजेपी की दिक्कत बढ़ गई है। 2009 में बीएसपी से सांसद रहीं तब्स्सुम इस बार सपी कोटे से रालोद की उम्मीदवार हैं। वहीं, नूरपुर से नईमुल हसन सपी के उम्मीदवार हैं। दोनों सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार होने के कारण बीजेपी ध्रुवीकरण की संभावना तलाश रही है।
जिन्ना प्रकरण को लेकर उठी आग
अलीगढ़ में जिन्ना प्रकरण को लेकर उठी आग से लेकर पलायन तक के मुद्दों के जरिए इसमें आंच लाने की तैयारी है। इसके साथ ही पार्टी पसीना भी खूब बहा रही है। प्रदेश उपाध्यक्ष नवाब सिंह नागर, संजीव बालियान सहित दूसरे नेता वहीं जुटे हैं। संगठन महामंत्री सुनील बंसल और पश्चिम क्षेत्र के प्रभारी व एमएलसी विजय बहादुर पाठक भी कैराना-नूरपुर मथ चुके हैं। प्रदेश महामंत्री एवं एमएलसी अशोक कटारिया भी दो दिन से वहीं जमे हैं। संगठनात्मक संरचना को दुरुस्त करने और अपने वोटरों को अधिक से अधिक बाहर निकालने से ही पार्टी की राह बनने की उम्मीद है।
मुद्दों का लिटमेस टेस्ट भी
2014 एवं 2017 के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण ने बीजेपी की राह आसान की थी। हालांकि, जिस कैराना से पलायन की जिन्न निकला था, वहीं पार्टी नहीं जीत पाई थी। ऐसे में यह चुनाव एक बार भी ध्रुवीकरण के मुद्दे का लिटमेस टेस्ट होगा। खासकर सपी-बीएसपी के एक मंच पर आने के बाद बनने वाले जातीय गठजोड़ की काट तलाशने के लिए पार्टी के पास दो ही रास्ते हैं। पहला चुनाव को विकास की पिच पर लड़ा जाए, जिससे जातीय मुद्दे गौण हों। हालांकि, विकास को चेहरा तो बनाया जा सकता है, लेकिन इसके चुनावी असर की गुजाइशें कमजोर हैं। ऐसे में जाति का तोड़ धर्म ही बनता है।