अभिषेक पाण्डेय, लखनऊ
अदालत की चौखट पर न्याय मिलने में अक्सर बहुत अधिक समय लगना देश में आम बात है। ऐसे में बुजुर्गों, दिव्यांगों और सैनिकों को अक्सर कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इसमें उन्हें काफी शारीरिक परेशानी होती है, धन और समय भी बर्बाद होता है। ऐसे ही लोगों की पीड़ा दूर करने का बीड़ा उठाया है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में उपभोक्ता फोरम प्रथम के जज राजर्षि शुक्ला ने।
न्यायमूर्ति शुक्ला ने डायस के पीछे बैठकर महसूस किया कि जो इंसान चल नहीं पाता और किसी दूसरे के सहारे न्याय की आस लेकर उपभोक्ता कोर्ट में आता है, उसे कितनी तकलीफ होती होगी। इसी एहसास ने कुछ ऐसा करने की हिम्मत दी, जिससे वृद्ध, दिव्यांग, सैनिक और भूतपूर्व सैनिकों को घर बैठे न्याय मिल सके।
इन लोगों को मुकदमों के लिए कोर्ट न आना पड़े और उनकी कोर्ट फीस में रुपये न खर्च हों। इसी मकसद से यूपी के लखनऊ में उपभोक्ता फोरम प्रथम के जज राजर्षि शुक्ला ने अपनी सैलरी से कोर्ट फीस जमा करने का बीड़ा उठाया। इसके लिए उन्होंने वकीलों का एक पैनल भी बनाया है जो बगैर कोर्ट फीस के बेसहारा लोगों की मदद के लिए तत्पर रहता है।
लाचार को देखकर मन में पीड़ा
बेंगलुरु में लॉ यूनिवर्सिटी से ऑल इंडिया जजेज एग्जामिनेशन के टॉपर रहे राजर्षि शुक्ला ने बताया कि देश बदल रहा है, ऐसे में थोड़ा-बहुत तो बदलाव हर इंसान में होना चाहिए। उन्होंने कहा, 'मैं अपने कार्यक्षेत्र की बात करूं तो उपभोक्ता अदालत में बिल और उससे संबंधित पेपर की जरूरत होती है। फिर भी कुछ केस में पैरवी के लिए आए वृद्ध और शारीरिक रूप से लाचार को देखकर मन में पीड़ा होती थी।
जब कभी अगली तारीख तक बात चली जाए तो उन लोगों के चेहरे पर आए तनाव को देख मुझे उनकी विवशता का अनुमान लग जाता था।'
उन्होंने कहा, 'कुछ ऐसे भी मिले जिन्हें दुकानदार या कम्पनी ने इस कदर धोखा दिया कि वे आर्थिक रूप से भी टूट गए। ऐसे में उनके पास कोर्ट फीस तक जमा करने और वकील का खर्च देने तक की हैसियत नहीं रही। इस तरह की घटनाएं मुझे बेचैन कर जाती थीं। यह सब देखने के बाद ही 17 अक्टूबर 2017 को उपभोक्ताओं की मदद के लिए वकीलों का एक पैनल बनाया। इस पैनल को उपभोक्ताओं की मदद के लिए अपनी जेब से कोर्ट फीस देना शुरू किया।'
बढ़ता गया कारवां
जज ने बताया कि इस अभियान में धीरे-धीरे युवा वकीलों का एक समूह भी जुड़ गया और उपभोक्ताओं से बगैर कोई कोर्ट फीस लिए उनकी पैरवी शुरू कर दी गई। इस दौरान तकरीबन 44 मामले ऐसे सामने आए, जिसमें शिकायतकर्ता वृद्ध, दिव्यांग, सैनिक और भूतपूर्व सैनिक थे। इन शिकायतों की सुनवाई करते हुए करीब तीन मामलों का निस्तारण किया जा चुका है। जबकि दूसरे मामलों का भी निपटारा जल्द हो जाएगा।
उनका कहना है कि अपनी जेब से ऐसे लोगों की मदद करने में जो आनंद मिलता है वह शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इस फैसले के पीछे उपभोक्ताओं को यह एहसास दिलाने का मकसद है कि इस न्यायालय में आकर उन्हें दूसरे कोर्ट की तरह चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा। जज राजर्षि शुक्ला के इस कार्य की न्यायिक क्षेत्र में काफी आलोचना भी हुई, लेकिन वह दुनिया की परवाह किए बगैर अपने सामाजिक अभियान में लगे हुए हैं।
अदालत की चौखट पर न्याय मिलने में अक्सर बहुत अधिक समय लगना देश में आम बात है। ऐसे में बुजुर्गों, दिव्यांगों और सैनिकों को अक्सर कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इसमें उन्हें काफी शारीरिक परेशानी होती है, धन और समय भी बर्बाद होता है। ऐसे ही लोगों की पीड़ा दूर करने का बीड़ा उठाया है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में उपभोक्ता फोरम प्रथम के जज राजर्षि शुक्ला ने।
न्यायमूर्ति शुक्ला ने डायस के पीछे बैठकर महसूस किया कि जो इंसान चल नहीं पाता और किसी दूसरे के सहारे न्याय की आस लेकर उपभोक्ता कोर्ट में आता है, उसे कितनी तकलीफ होती होगी। इसी एहसास ने कुछ ऐसा करने की हिम्मत दी, जिससे वृद्ध, दिव्यांग, सैनिक और भूतपूर्व सैनिकों को घर बैठे न्याय मिल सके।
इन लोगों को मुकदमों के लिए कोर्ट न आना पड़े और उनकी कोर्ट फीस में रुपये न खर्च हों। इसी मकसद से यूपी के लखनऊ में उपभोक्ता फोरम प्रथम के जज राजर्षि शुक्ला ने अपनी सैलरी से कोर्ट फीस जमा करने का बीड़ा उठाया। इसके लिए उन्होंने वकीलों का एक पैनल भी बनाया है जो बगैर कोर्ट फीस के बेसहारा लोगों की मदद के लिए तत्पर रहता है।
लाचार को देखकर मन में पीड़ा
बेंगलुरु में लॉ यूनिवर्सिटी से ऑल इंडिया जजेज एग्जामिनेशन के टॉपर रहे राजर्षि शुक्ला ने बताया कि देश बदल रहा है, ऐसे में थोड़ा-बहुत तो बदलाव हर इंसान में होना चाहिए। उन्होंने कहा, 'मैं अपने कार्यक्षेत्र की बात करूं तो उपभोक्ता अदालत में बिल और उससे संबंधित पेपर की जरूरत होती है। फिर भी कुछ केस में पैरवी के लिए आए वृद्ध और शारीरिक रूप से लाचार को देखकर मन में पीड़ा होती थी।
जब कभी अगली तारीख तक बात चली जाए तो उन लोगों के चेहरे पर आए तनाव को देख मुझे उनकी विवशता का अनुमान लग जाता था।'
उन्होंने कहा, 'कुछ ऐसे भी मिले जिन्हें दुकानदार या कम्पनी ने इस कदर धोखा दिया कि वे आर्थिक रूप से भी टूट गए। ऐसे में उनके पास कोर्ट फीस तक जमा करने और वकील का खर्च देने तक की हैसियत नहीं रही। इस तरह की घटनाएं मुझे बेचैन कर जाती थीं। यह सब देखने के बाद ही 17 अक्टूबर 2017 को उपभोक्ताओं की मदद के लिए वकीलों का एक पैनल बनाया। इस पैनल को उपभोक्ताओं की मदद के लिए अपनी जेब से कोर्ट फीस देना शुरू किया।'
बढ़ता गया कारवां
जज ने बताया कि इस अभियान में धीरे-धीरे युवा वकीलों का एक समूह भी जुड़ गया और उपभोक्ताओं से बगैर कोई कोर्ट फीस लिए उनकी पैरवी शुरू कर दी गई। इस दौरान तकरीबन 44 मामले ऐसे सामने आए, जिसमें शिकायतकर्ता वृद्ध, दिव्यांग, सैनिक और भूतपूर्व सैनिक थे। इन शिकायतों की सुनवाई करते हुए करीब तीन मामलों का निस्तारण किया जा चुका है। जबकि दूसरे मामलों का भी निपटारा जल्द हो जाएगा।
उनका कहना है कि अपनी जेब से ऐसे लोगों की मदद करने में जो आनंद मिलता है वह शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इस फैसले के पीछे उपभोक्ताओं को यह एहसास दिलाने का मकसद है कि इस न्यायालय में आकर उन्हें दूसरे कोर्ट की तरह चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा। जज राजर्षि शुक्ला के इस कार्य की न्यायिक क्षेत्र में काफी आलोचना भी हुई, लेकिन वह दुनिया की परवाह किए बगैर अपने सामाजिक अभियान में लगे हुए हैं।