नई दिल्ली
यूपी में चल रहे सियासी ड्रामे में हर घटनाक्रम के बाद बस एक ही सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश हो रही है कि भारी कौन पड़ेगा, शिवपाल सिंह यादव या अखिलेश यादव? मंगलवार को पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव की प्रेस कॉन्फ्रेंस से जो लाचारगी नजर आई, उससे साफ हो गया कि इन दोनों में जीते कोई भी, लेकिन हारते दिख रहे हैं 'नेताजी'।
यह पहला मौका है जब मुलायम सिंह यादव की नजरों के सामने पार्टी का अनुशासन तार-तार हो रहा है। अब तक यह कहा जाता था कि 'नेताजी' के आंख के इशारों से पार्टी नियंत्रित हो जाती है। अब हाल यह हो गया है कि इशारे तो दूर उनके खुले अल्फाजों को भी कोई समझने को तैयार नहीं। अगर अब सुलह-समझौते के पैबंद लग भी गए तो पिछले एक महीने के घटनाक्रम में पार्टी इतना गंवा चुकी है, जिसकी भरपाई संभव नहीं है। यह एक तरह से 'नेताजी' की सियासी पूंजी का लुटना हुआ, जिसे उन्होंने अपने 50 साल के राजनीतिक करियर में खून-पसीना बहाकर जुटाया था।
अखिलेश के न आने के मायने
अखिलेश यादव मंगलवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस में नहीं आए। मतलब साफ है कि उनकी नाराजगी खत्म नहीं हुई है। पार्टी के अंदर जिस तरह से दो पाले बंटे थे, वह अब भी बंटे हुए हैं। पहले यह तैयारी थी कि साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस होगी जिसमें 'हम एक हैं' का संदेश दिया जाएगा, लेकिन अखिलेश ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल होने से इनकार कर दिया। सूत्रों का कहना है कि अखिलेश ने दो टूक शब्दों में अपने पिता से कह दिया कि पार्टी के अंदर जो लोग उनके साथ साजिश कर रहे हैं, उनके साथ वह कतई काम नहीं कर सकते। पहले उन लोगों को पार्टी से निकाला जाए, तभी कोई सुलह-समझौते की गुंजाइश बन सकती है। अखिलेश अब जहां पहुंच गए हैं, वहां से वह अपने कदम वापस नहीं खींचना चाहते हैं। वह बर्खास्त किए गए मंत्रियों, जिनमें उनके चाचा शिवपाल यादव भी शामिल हैं, उनको मंत्रिमंडल में फिर से लेने को भी तैयार नहीं हैं।
रामगोपाल-अमर सिंह का पेंच
पार्टी के ही कुछ लोगों ने पहले समझौते का यह फॉर्म्युला तैयार किया था कि अखिलेश यादव बर्खास्त मंत्रियों को अपने मंत्रिमंडल में वापस ले लें और उसके बदले अखिलेश यादव की मित्रमंडली को सपा में वापस ले लिया जाएगा। लेकिन अखिलेश यादव के लिए अब मित्रमंडली से ज्यादा चाचा रामगोपाल यादव की वापसी अहम हो गई है। अखिलेश ने अपने कुछ करीबी लोगों से कहा भी है कि अगर पार्टी में किसी की वापसी होती है तो वह रामगोपाल चाचा की होगी। उनको पार्टी से बाहर रखकर हम किसी से कोई बात नहीं कर सकते।
मुलायम सिंह यादव फिलहाल रामगोपाल यादव को पार्टी में वापस नहीं लेना चाहते। उन्होंने भी अपने करीबी लोगों से बातचीत में कहा कि उनके लड़के को उनके खिलाफ बागी बनाने वाले रामगोपाल यादव ही हैं। उन्हें चाहे जितना ज्यादा सियासी नुकसान हो, लेकिन वह अब रामगोपाल को पार्टी में नहीं ले सकते हैं। उधर अखिलेश यादव की जिद है कि अगर रामगोपाल चाचा पार्टी में नहीं रह सकते तो अमर सिंह को भी पार्टी में रहने का कोई हक नहीं।
निशाने पर मुलायम सिंह यादव
समाजवादी पार्टी के अंदर अब तक नेताजी पर अंगुली उठाने की हिम्मत किसी में नहीं थी, लेकिन एक महीने के घटनाक्रम में 'नेताजी' पर खूब शब्द बाण चले हैं। रामगोपाल यादव ने 'नेताजी' को जो पहला खत लिखा, उसमें यहां तक कह दिया कि इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा। पत्र का मजमून कुछ यूं था-'पार्टी की स्थापना के लिए जो जनता आपकी पूजा करती है, इसके पतन के लिए आपको और सिर्फ आपको दोषी ठहराएगी। इतिहास बहुत निष्ठुर होता है, वह किसी को बख्शता नहीं है।' इसके बाद पार्टी एमएलसी उदयवीर ने तो कहीं ज्यादा कड़ी भाषा का इस्तेमाल करते हुए एसपी चीफ को पत्र लिख दिया। इसमें उन्होंने उनकी दूसरी पत्नी साधना यादव पर अखिलेश यादव के खिलाफ षड्यंत्र करने तक का आरोप लगा डाला। कहा कि शिवपाल यादव साधना यादव के राजनीतिक मुखौटा हैं।
रणनीतिक चूक
माना जा रहा है कि अंदूरूनी कलह के इस स्तर तक पहुंचने के पीछे 'नेता जी' की रणनीतिक चूक है। 'नेता जी' को वक्त बदलने के साथ हालात बदलने का अहसास नहीं हो पाया। अपनी अहमियत के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए ही पार्टी/परिवार के मनमुटाव को सार्वजनिक मंच तक ले गए, जहां से वह यह संदेश दे सकें कि पार्टी/परिवार पर उनका नियंत्रण किस हद तक है। यहीं वह गलती कर बैठे।
अखिलेश और शिवपाल यादव के बीच शुरू अंतर्कलह को वह बहुत आसानी के साथ घर के अंदर खत्म करा सकते थे, लेकिन जब उसे वह पार्टी के प्लटेफार्म पर ले गए तब यह पता चला कि दोनों पर 'नेता जी' की ब्रेक ढीली पड़ चुकी है। फिर तो हालात ऐसे बदलते गए कि सब कुछ 'नेता जी' के नियंत्रण से बाहर हो गया। उन्होंने स्थितियों को सम्भालने की जितनी भी कोशिश की, स्थितियां उतनी ही बिगड़ती गईं।
कोई जवाब नहीं
उनकी लाचारगी का यह आईना था कि प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनके पास कई महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं थे। अखिलेश यादव वहां क्यों नहीं आए, उन्हें नहीं पता था। क्या अखिलेश यादव बर्खास्त मंत्रियों को वापस लेंगे तो उन्होंने इसे मुख्यमंत्री के विवेक पर डाल दिया। क्या अखिलेश यादव ही 2017 के चुनावों में सीएम फेस होंगे, इसको भी उन्होंने बहुमत आने पर विधानमंडल दल की बैठक पर टाल दिया।