रिपोर्टर, मुंबई:
मुंबई उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि आपसी-सहमति से लिए गए तलाक बाद अलग हुई परित्यक्त महिला किसी मध्यस्थ के समक्ष अपनी दी गई पूर्व-सहमति को अस्वीकार कर सकती है। इस फैसले का आगामी दिनों में तलाक के मामलों पर काफी असर पड़ेगा और शादी के बाद छोड़ी गई महिलाओं को इसका फायदा मिलेगा।
न्यायाधीश वसंत नाईक ने यहां की एक 30 वर्षीय महिला की याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि 'किसी मध्यस्थ के समक्ष जिन शर्तों पर सहमति हुई है, वे तब तक प्रभावी नहीं होंगी, जब तक पारिवारिक न्यायालय कोई औपचारिक फैसला और इसके आधार पर कोई हुक्मनामा नहीं दे देता। याचिका में महिला ने आपसी सहमति से लिए गए तलाक के लिए दी गई शर्तों को वापस लेने की मांग की है।
पीठ ने जनवरी 2017 में नागपुर पारिवारिक न्यायालय के आदेश को खारिज करते हुए कहा कि 'पारिवारिक न्यायालय को चाहिए कि वह याचिकाकर्ता (पत्नी) को उन शर्तों को वापस लेने की मंजूरी दे, जो उसने मध्यस्थ के समक्ष रखी हैं'।
पति ने तलाक की याचिका को लेकर नागपुर के पारिवारिक न्यायालय में दस्तक की थी। कोर्ट ने कोई फैसला देने से पहले इस याचिका को एक मध्यस्थ के समक्ष पेश कर दिया। इस मध्यस्थ के समक्ष दोनों पति-पत्नी पेश हुए और आपसी शर्तों पर तलाक के लिए राजी हो गए। इन शर्तों पर दोनों ने 25 जनवरी, 2017 को हस्ताक्षर भी किए और पति ने एक-बारीय निर्वाह निधि के रुप में 4.21 लाख रुपये जमा कर दिए।
लेकिन, बाद में महिला ने तलाक की सहमत हुई शर्तों को मानने से इनकार कर दिया और ऐसा करने के लिए नागपुर की पारिवारिक न्यायालय में गुहार लगाई। लेकिन पारिवारिक न्यायालय ने उसकी याचिका को अस्वीकार कर दिया और पूर्व में मध्यस्थ के समक्ष की गई शर्तों को आधार बताते हुए इस दस वर्षीय विवाह को भंग कर दिया। इस पर महिला ने उच्च न्यायालय में गुहार लगाई।
उच्च न्यायालय ने कहा कि पारिवारिक न्यायालय ने महिला की याचिका को अस्वीकार करके सही काम नहीं किया है क्योंकि दोंनों ही पक्षों ने आपसी सहमति से तलाक मांगने के लिए पारिवारिक न्यायालय में गुहार लगाई थी और हिन्दु विवाह अधिनियम, 1955 के तहत ऐसा करना जरुरी है। उच्च न्यायालय ने कहा कि महिला ने आपसी सहमति से हुई शर्तों का कोई अनुचित फायदा नहीं उठाया है इन शर्तों पर अमल होने से पहले ही उसने इनको वापस लेने का आवेदन कर दिया है।