इन दिनों कई विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में एक अजीब तनावपूर्ण माहौल बना हुआ है। वजहें अलग-अलग हैं लेकिन हर जगह एक कॉमन फैक्टर जरूर है कि केंद्र सरकार परिसरों में जरूरत से ज्यादा दखल दे रही है। इसके चलते दूसरी राजनीतिक ताकतें भी सक्रिय हो गई हैं और कुल मिलाकर कैंपस सियासी अखाड़ा बनते जा रहे हैं। इसके चलते पढ़ाई-लिखाई और दूसरी अकादमिक गतिविधियों पर घातक असर पड़ रहा है, लेकिन इस बारे में कहीं कोई बात नहीं हो रही है।
श्रीनगर एनआईटी विवाद को ही लें। स्थानीय और अन्य राज्यों के छात्रों के बीच टी-20 वर्ल्ड कप के एक मैच को लेकर विवाद हुआ था, जो आसानी से खत्म हो सकता था और हो भी रहा था। लेकिन फिर देश के कई नेताओं ने सोशल मीडिया पर बयान देकर मामले को गरमाने की कोशिश की और बाहरी छात्रों ने एनआईटी कैंपस में तिरंगा फहराने की पहल करके मामले को एक नया मोड़ दे दिया। इससे यह संदेह होता है कि कहीं उन्हें किसी छात्र संगठन की तरफ से ही ऐसा करने का निर्देश तो नहीं मिला। इस शक का आधार भी है। हम केंद्र में सत्तारूढ़ दल से जुड़े छात्र संगठन की अति सक्रियता के चलते ही हैदराबाद यूनिवर्सिटी और जेएनयू में तिल का ताड़ बनते देख चुके हैं। दोनों ही जगहों पर मामले को राष्ट्रव्यापी स्वरूप केंद्र की दखलंदाजी के चलते मिला। अब श्रीनगर एनआईटी के मामले में भी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय अपनी टांग फंसाने जा रहा है।
हमारे देश में क्रिकेट नैशनलिज्म ने पहले भी समाज का काफी नुकसान किया है। कई बार यह दंगों का कारण बना है। लेकिन टोले-मोहल्ले से निकल कर कैंपसों में इसका दखल नई बात है। कुछ समय पहले यूपी के एक तकनीकी संस्थान में पाकिस्तान की जीत पर कथित रूप से खुशी मनाने के कारण कश्मीरी छात्रों की पिटाई की गई थी। फिर लड़कियों के एक संस्थान में भी ऐसा ही विवाद हुआ। क्रिकेट- एक ऐसा खेल, जिसमें जारी घपलों को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है- भारत में राष्ट्रवाद का प्रतीक बन जाए, इससे दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है? लेकिन मूल समस्या दूसरी है।
मामला गंभीर रूप तब लेता है जब समाज और राजनीति के ठेकेदार खेल को लेकर होने वाले झगड़ों का इस्तेमाल अपना स्वार्थ साधने में हैं। छात्रों का दिमाग कच्चा होता है और ठहर कर फैसला लेने की क्षमता उनमें कम होती है। लेकिन उनके झगड़े आसानी से सुलझ भी जाते हैं, बशर्ते बड़े लोग उनमें टांग न अड़ाएं। अभी श्रीनगर में जो कुछ हुआ है, उसे हवा देने के बजाय ठंडा करने की जरूरत है। राष्ट्रीय संस्थानों को ऐसे रास्ते भी जरूर खोजने चाहिए कि अलग-अलग राज्यों से आए छात्र वहां घुल-मिल कर रहें। लेकिन यह तभी होगा जब केंद्र सरकार इन संस्थानों के भीतरी कामकाज में दखल देने को उतावली न दिखे।
श्रीनगर एनआईटी विवाद को ही लें। स्थानीय और अन्य राज्यों के छात्रों के बीच टी-20 वर्ल्ड कप के एक मैच को लेकर विवाद हुआ था, जो आसानी से खत्म हो सकता था और हो भी रहा था। लेकिन फिर देश के कई नेताओं ने सोशल मीडिया पर बयान देकर मामले को गरमाने की कोशिश की और बाहरी छात्रों ने एनआईटी कैंपस में तिरंगा फहराने की पहल करके मामले को एक नया मोड़ दे दिया। इससे यह संदेह होता है कि कहीं उन्हें किसी छात्र संगठन की तरफ से ही ऐसा करने का निर्देश तो नहीं मिला। इस शक का आधार भी है। हम केंद्र में सत्तारूढ़ दल से जुड़े छात्र संगठन की अति सक्रियता के चलते ही हैदराबाद यूनिवर्सिटी और जेएनयू में तिल का ताड़ बनते देख चुके हैं। दोनों ही जगहों पर मामले को राष्ट्रव्यापी स्वरूप केंद्र की दखलंदाजी के चलते मिला। अब श्रीनगर एनआईटी के मामले में भी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय अपनी टांग फंसाने जा रहा है।
हमारे देश में क्रिकेट नैशनलिज्म ने पहले भी समाज का काफी नुकसान किया है। कई बार यह दंगों का कारण बना है। लेकिन टोले-मोहल्ले से निकल कर कैंपसों में इसका दखल नई बात है। कुछ समय पहले यूपी के एक तकनीकी संस्थान में पाकिस्तान की जीत पर कथित रूप से खुशी मनाने के कारण कश्मीरी छात्रों की पिटाई की गई थी। फिर लड़कियों के एक संस्थान में भी ऐसा ही विवाद हुआ। क्रिकेट- एक ऐसा खेल, जिसमें जारी घपलों को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है- भारत में राष्ट्रवाद का प्रतीक बन जाए, इससे दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है? लेकिन मूल समस्या दूसरी है।
मामला गंभीर रूप तब लेता है जब समाज और राजनीति के ठेकेदार खेल को लेकर होने वाले झगड़ों का इस्तेमाल अपना स्वार्थ साधने में हैं। छात्रों का दिमाग कच्चा होता है और ठहर कर फैसला लेने की क्षमता उनमें कम होती है। लेकिन उनके झगड़े आसानी से सुलझ भी जाते हैं, बशर्ते बड़े लोग उनमें टांग न अड़ाएं। अभी श्रीनगर में जो कुछ हुआ है, उसे हवा देने के बजाय ठंडा करने की जरूरत है। राष्ट्रीय संस्थानों को ऐसे रास्ते भी जरूर खोजने चाहिए कि अलग-अलग राज्यों से आए छात्र वहां घुल-मिल कर रहें। लेकिन यह तभी होगा जब केंद्र सरकार इन संस्थानों के भीतरी कामकाज में दखल देने को उतावली न दिखे।