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वायरस की लुकाछुपी

भारत में दिए जा रहे टीके कोविशील्ड और कोवैक्सिन सस्ते तो हैं, लेकिन उनकी कार्यकुशलता को लेकर अभी कोई आधिकारिक रिपोर्ट नहीं आई है। टीके का दूसरा डोज पड़ जाने के बाद ही जाना जा सकेगा कि जमीनी तौर पर ये कितने कारगर साबित होते हैं।

Authored byएनबीटी डेस्क | नवभारत टाइम्स 4 Feb 2021, 7:47 am
देश में कोरोना वैक्सीन के इस्तेमाल को सशर्त मंजूरी मिले एक महीना बीत चुका है। 3 जनवरी को सरकार ने ऑक्सफर्ड-एस्ट्राजेनेका के कोविशील्ड और भारत बायोटेक के कोवैक्सिन टीकों को मंजूरी दी थी। हालांकि टीकाकरण अभियान की शुरुआत 16 जनवरी से हुई, फिर भी भारत सबसे ज्यादा तेजी से 40 लाख लोगों को टीका देने वाला देश बन गया है। इस बीच टीके के मोर्चे पर कुछ और उत्साह बढ़ाने वाली खबरें आई हैं। रूस में निर्मित वैक्सीन स्पुतनिक V को लेकर शुरू में कई तरह की आशंकाएं जताई जा रही थीं। इसकी मुख्य वजह थी तीसरे फेज की ट्रायल रिपोर्ट का न आना। मगर अब फील्ड रिपोर्ट आ गई है और इस टीके की कार्यकुशलता 91.6 प्रतिशत बताई जा रही है। हालांकि अमेरिकी कंपनियों मॉडर्ना और फाइजर के टीकों के मामलों में यह आंकड़ा 94 फीसदी पाई गई है, लेकिन स्पुतनिक V की एक विशेषता उसकी कम लागत भी है। मॉडर्ना और फाइजर के मुकाबले स्पुतनिक V की कीमत करीब एक तिहाई पड़ती है, जो गरीब देशों के लिए बड़े काम की सूचना है।
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भारत में दिए जा रहे टीके कोविशील्ड और कोवैक्सिन सस्ते तो हैं, लेकिन उनकी कार्यकुशलता को लेकर अभी कोई आधिकारिक रिपोर्ट नहीं आई है। टीके का दूसरा डोज पड़ जाने के बाद ही जाना जा सकेगा कि जमीनी तौर पर ये कितने कारगर साबित होते हैं। बहरहाल, स्पुतनिक V की कामयाबी भारत के लिए भी अहम है। सस्ते और कारगर टीकों की जरूरत यहां इतने बड़े पैमाने पर पड़ने वाली है कि एक-दो टीके काफी नहीं होंगे, हालांकि कोरोना के नए मामलों की संख्या में कमी से फिलहाल थोड़ी राहत जरूर है। यह राहत देश ही नहीं, दुनिया के स्तर पर भी दिख रही है लेकिन इस वायरस के प्रकोप की लहर पीछे जाकर दोबारा ज्यादा वेग से लौटने के कई उदाहरण पेश कर चुकी है। ताजा मामला ब्रिटेन का है जहां न केवल कोरोना के मामले बिल्कुल नीचे जाने के बाद अचानक बढ़ गए बल्कि वायरस के एक नए रूप का आतंक वहां कोरोना की शुरुआत से भी ज्यादा दिखाई पड़ रहा है।

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इसी प्रसंग में एक और बात उल्लेखनीय है कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (शरीर की श्वेत रक्त कणिकाओं की क्लोनिंग करके बनाई गई एंटीबॉडी), जिसकी चर्चा पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के इलाज के बाद काफी हुई थी, वायरस के नए रूपों के लिए व्यर्थ है। ब्रिटेन और अफ्रीकी देशों में दिखे नए वायरस वैरिएंट्स से जुड़े मामलों में इलाज की इस पद्धति को नाकारा पाया गया। साफ है कि इस वायरस ने इंसानों के साथ लुकाछुपी का जो खेल शुरू किया है उसका तुरत-फुरत निपटारा मुश्किल है। भले ऐसा लगे कि अब तो कई सारे टीके आ गए हैं और नए मामलों की संख्या भी कम हो गई है, पर इसके पलटवार की संभावना अभी ज्यों की त्यों है। इसीलिए इस बीमारी का सफाया होने तक न तो इससे लड़ाई में कोई ढील बरती जा सकती है, न ही बचाव से जुड़ी सावधानियां कम करने का जोखिम उठाया जा सकता है।
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