स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने राज्य सभा में जो ताजा आंकड़े सामने रखे हैं, उनसे साफ है कि देश में टीबी जैसी पारंपरिक बीमारियों का खौफ कुछ कम हुआ है, जबकि कैंसर और डायबीटीज जैसी लाइफ स्टाइल से जुड़ी बीमारियों का जोर तेजी से बढ़ा है। पिछले तीन सालों के लिए जारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में इधर कैंसर, खासकर फेफड़ों के कैंसर के मामलों की तादाद आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है। 2012 में लंग कैंसर के 76,783 मामले सामने आए थे जो 2013 में बढ़कर 79,833 और 2014 में 83,035 हो गए।
हर तरह के कैंसर की बात करें तो 2013 में इसके 10,86,783 मामले पाए गए जो 2015 में बढ़ कर 11,48,692 हो गए। ऐसे ही डायबीटीज पीड़ितों (20-79 वर्ष) की संख्या 2013 में 6.5 करोड़ थी जो 2014 में 6.68 करोड़ और 2015 में 6.91 करोड़ हो गई। इसके उलट टीबी पीड़ितों का हिस्सा 2014 में प्रति लाख आबादी पर 167 पाया गया, जबकि 1990 में यह 216 था। इन आंकड़ों से उभरते पैटर्न पर गौर करें तो ऐसा लगता है कि गरीबी और गंदगी से होने वाली बीमारियों पर कुछ हद तक काबू पाया गया है, जबकि मध्यवर्गीय जीवन शैली से पैदा होने वाली बीमारियां हमारे समाज के लिए नई चुनौती बनकर उभर रही हैं।
यहां एक गौरतलब बात यह है कि स्वास्थ्य मंत्री के बयान में सामुदायिक स्तर पर निपटारे की मांग करने वाली छूत की बीमारियों और मच्छर-पिस्सू आदि से फैलने वाली बीमारियों का कोई जिक्र नहीं है। वे सिर्फ उन बीमारियों की बात कर रहे हैं, जिनका निदान एक व्यक्ति के स्तर पर किया जाता है।
संभव है, संसद में उनसे सवाल ही ऐसा किया गया हो, फिर भी इस हकीकत की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अपने देश में चिकित्सा ढांचे का सारा जोर उन बीमारियों पर है, जिनका इलाज मोटा पैसा देकर और अस्पताल में भर्ती होकर ही कराना पड़ता है। असल में यह बीमा आधारित चिकित्सा व्यवस्था का चमत्कार है, जिसे बड़ी हॉस्पिटल चेन्स, बीमा कंपनियों और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के हितों को ध्यान में रखकर खड़ा किया गया है। भारत के आम लोगों को सबसे ज्यादा तबाही छोटी, सामुदायिक बीमारियों के हाथों झेलनी पड़ती है, लेकिन उनके निदान का ढांचा बनाना तो दूर, उन पर बात करना भी अब जरूरी नहीं समझा जाता।
हर तरह के कैंसर की बात करें तो 2013 में इसके 10,86,783 मामले पाए गए जो 2015 में बढ़ कर 11,48,692 हो गए। ऐसे ही डायबीटीज पीड़ितों (20-79 वर्ष) की संख्या 2013 में 6.5 करोड़ थी जो 2014 में 6.68 करोड़ और 2015 में 6.91 करोड़ हो गई। इसके उलट टीबी पीड़ितों का हिस्सा 2014 में प्रति लाख आबादी पर 167 पाया गया, जबकि 1990 में यह 216 था। इन आंकड़ों से उभरते पैटर्न पर गौर करें तो ऐसा लगता है कि गरीबी और गंदगी से होने वाली बीमारियों पर कुछ हद तक काबू पाया गया है, जबकि मध्यवर्गीय जीवन शैली से पैदा होने वाली बीमारियां हमारे समाज के लिए नई चुनौती बनकर उभर रही हैं।
यहां एक गौरतलब बात यह है कि स्वास्थ्य मंत्री के बयान में सामुदायिक स्तर पर निपटारे की मांग करने वाली छूत की बीमारियों और मच्छर-पिस्सू आदि से फैलने वाली बीमारियों का कोई जिक्र नहीं है। वे सिर्फ उन बीमारियों की बात कर रहे हैं, जिनका निदान एक व्यक्ति के स्तर पर किया जाता है।
संभव है, संसद में उनसे सवाल ही ऐसा किया गया हो, फिर भी इस हकीकत की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अपने देश में चिकित्सा ढांचे का सारा जोर उन बीमारियों पर है, जिनका इलाज मोटा पैसा देकर और अस्पताल में भर्ती होकर ही कराना पड़ता है। असल में यह बीमा आधारित चिकित्सा व्यवस्था का चमत्कार है, जिसे बड़ी हॉस्पिटल चेन्स, बीमा कंपनियों और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के हितों को ध्यान में रखकर खड़ा किया गया है। भारत के आम लोगों को सबसे ज्यादा तबाही छोटी, सामुदायिक बीमारियों के हाथों झेलनी पड़ती है, लेकिन उनके निदान का ढांचा बनाना तो दूर, उन पर बात करना भी अब जरूरी नहीं समझा जाता।