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अलविदा राष्ट्रीय दल

एक समय तेलुगूदेशम के शीर्षनेता चंद्रबाबू नायडू अटल सरकार के भरपूर दोहन के लिए जाने जाते थे। यह सिलसिला आंध्र प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री भी जारी रखेगा।

नवभारत टाइम्स 12 Apr 2019, 8:51 am
सत्रहवीं लोकसभा के लिए गुरुवार को हुए पहले चरण के मतदान के साथ ही चार राज्यों के असेंबली चुनावों के लिए भी वोटिंग हुई है। इन राज्यों में एक है आंध्र प्रदेश, जहां इस बार राजनीतिक तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। विभाजन के बाद इस राज्य की सियासत दो क्षेत्रीय दलों तेलुगूदेशम और वाईएसआर कांग्रेस के इर्द-गिर्द सिमट गई है और राष्ट्रीय दल हाशिए पर चले गए हैं। कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी और कम्युनिस्ट पार्टियों में यहां कोई दम नहीं दिख रहा है। बिल्कुल संभव है कि आगे के चुनावों में अपना अस्तित्व बचाने के लिए भी उन्हें यहां की रीजनल पार्टियों का ही सहारा लेना पड़े।
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इस तरह देखें तो दक्षिण का यह राज्य भी तमिलनाडु के रास्ते पर चल पड़ा है, जहां सत्तर के दशक से शुरू करके हाल तक दो क्षेत्रीय दलों डीएमके और एआईडीएमके का ही वर्चस्व रहा है। इन दोनों ने अपनी मर्जी और अपनी शर्तों पर कांग्रेस और बीजेपी से गठबंधन किए और उनके केंद्र की सत्ता संभालने पर मनचाही सौदेबाजी की। आंध्र प्रदेश की दिशा भी ठीक वैसी ही है। वहां के दोनों ताकतवर दल राष्ट्रीय पार्टियों को किस रूप में ले रहे हैं, इसका अंदाजा वाईएसआर कांग्रेस के नेता वाईएस जगनमोहन रेड्‌डी के उस हालिया बयान में मिलता है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत में अब राष्ट्रीय पार्टी जैसी कोई बात ही नहीं रही।

राज्य में मुख्य मुकाबला चंद्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम और जगनमोहन रेड्‌डी की वाईएसआर कांग्रेस के बीच है। अभिनेता पवन कल्याण की जन सेना तीसरी ताकत जैसी जगह बनाने की जुगत में है। कहने को बीजेपी और कांग्रेस भी हाथ आजमा रही हैं पर उन्हें किसी ने गठबंधन लायक भी नहीं समझा है। हिसाब सीधा है। राज्य में सत्ता जिसकी भी आएगी, वह केंद्र में सरकार बनाने वाले दल को अपना सशर्त समर्थन देगा।

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एक समय तेलुगूदेशम के शीर्षनेता चंद्रबाबू नायडू अटल सरकार के भरपूर दोहन के लिए जाने जाते थे। यह सिलसिला आंध्र प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री भी जारी रखेगा, बशर्ते केंद्र सरकार यथोचित रूप से कमजोर हो और अपने अस्तित्व के लिए उसके सांसदों पर निर्भर हो। अभी पांच-छह साल पहले तक आंध्र प्रदेश को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था लेकिन यूपीए सरकार द्वारा राज्य का विभाजन करके तेलंगाना का गठन किए जाने के बाद यहां पार्टी की साख लुढ़क कर तली में पहुंच गई। कांग्रेस का वोट शेयर 2004 में 50 प्रतिशत से ऊपर था, जो 2014 में मात्र 2.8 प्रतिशत पर आ गया।

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साल 2014 के चुनावी आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि तेलुगूदेशम पार्टी (47.7 फीसदी) और वाईएसआर कांग्रेस (45.4 फीसदी) के वोटों का प्रतिशत तब करीब-करीब बराबर था। लेकिन उस चुनाव में बीजेपी से गठबंधन बनाने का फायदा तेलुगूदेशम को यह हुआ कि सीटों की संख्या के मामले में उसने वाईएसआर कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ दिया। इस बार मुकाबला सीधा है। यानी हाशिए स्पष्ट हैं, तस्वीर कैसी उभरती है, यह देखना है।

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