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चुनाव सुधार की पहल

कालेधन पर शुरू हुई बहस अब एक अहम मोड़ पर आ पहुंची है। एक स्वर से कहा जा रहा है कि...

नवभारत टाइम्स 22 Dec 2016, 1:33 am
कालेधन पर शुरू हुई बहस अब एक अहम मोड़ पर आ पहुंची है। एक स्वर से कहा जा रहा है कि चुनाव सुधार के बगैर ब्लैक मनी और करप्शन की समस्या से निपटा नहीं जा सकता क्योंकि चुनाव कालेधन को खपाने का एक प्रमुख जरिया बने हुए हैं।
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चुनाव सुधार की पहल


देश के लोगों की आकांक्षा को देखते हुए चुनाव आयोग ने इस संबंध में सार्थक पहल की है। उसने राजनीतिक दलों के चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए केंद्र सरकार से मांग की है कि जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में संशोधन करके दो हजार रुपये से अधिक के चंदों के स्रोत बताना अनिवार्य किया जाना चाहिए। फिलहाल यह सीमा 20 हजार रुपये है।

आयोग की यह भी मांग है कि आयकर में छूट उन्हीं दलों को मिलनी चाहिए, जो चुनावों में नियमित रूप से हिस्सेदारी करते हैं। आयोग ऐसे 200 से अधिक दलों के वित्तीय मामलों की जांच के लिए आयकर अधिकारियों को पत्र लिखने वाला है, जिन्हें उसने चुनाव न लड़ने के कारण ‘सूची से बाहर’ किया है।

आयोग को शक है कि ये कालेधन को सफेद करने का काम करते हैं। वैसे तो सरकार ने आयोग की मांग को लेकर सकारात्मक रुख दिखाया है पर क्या उसमें इतना साहस है कि वह राजनीतिक दलों को चंदे में मिलने वाली छूट को पूरी तरह समाप्त कर दे? अगर वह वाकई ब्लैक मनी के खिलाफ अभूतपूर्व कदम उठाना चाहती है तो वह तत्काल ऐसा करे।

राजनीतिक पार्टियों को 20 हजार रुपये की भी छूट क्यों मिलनी चाहिए? बेहतर तो यह होगा कि वे एक-एक पैसे का हिसाब दें ताकि शक की कोई गुंजाइश ही न बचे। पार्टियां खुद ही आगे बढ़कर क्यों नहीं यह बात कह रही हैं? क्या सारी नसीहतें सारे नियम-कायदे आम जनता के लिए ही हैं? यह बात अब छुपी हुई नहीं रह गई है कि कालेधन के कारोबारी वर्तमान प्रावधान का किस तरह फायदा उठा रहे हैं।

अभी पार्टियों को 20,000 रुपये से कम के चंदे का कोई ब्योरा देने की आवश्यकता नहीं है। इस पर उन्हें टैक्स भी नहीं देना पड़ता। इसलिए प्राय: सभी राजनीतिक दल यही बताते हैं कि उन्हें चंदे के तौर पर मिली कुल रकम में बड़ा हिस्सा वह है, जो 20-20 हजार रुपये से कम राशि में मिला।

आमतौर पर यह हिस्सा 75 प्रतिशत से अधिक होता है। चुनाव आयोग यह कह-कह कर थक गया कि राजनीतिक दलों के खातों का ऑडिट कैग की ओर से सुझाए गए ऑडिटर करें, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं। वे सूचना अधिकार कानून के दायरे में आने के लिए भी तैयार नहीं। उनसे कोई पूछ नहीं सकता कि उनकी किसी रैली पर कितना खर्च हुआ?

आखिर ये सब जनता कब तक बर्दाश्त करेगी? सरकार आखिर क्यों नहीं पार्टियों से कहती है कि वे भी कैशलेस चंदा लें? बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। चंदे की व्यवस्था को बदलना ही होगा।

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