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नेपाल में राजनीतिक अस्थिरताः बीच रास्ते संसद भंग

लंबे समय से राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहे नेपाल के लिए किसी प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा न कर पाना कोई नई बात नहीं है। 1990 से 2008 तक चले संवैधानिक राजतंत्र के दौर में भी हाल यही था...

Written byएनबीटी डेस्क | नवभारत टाइम्स 22 Dec 2020, 1:49 pm
अपनी पार्टी के भीतर से तीव्र विरोध का सामना कर रहे नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने रविवार को अचानक संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा को बर्खास्त कर दिया। अपने पांच वर्षीय मौजूदा कार्यकाल का तीन साल भी उन्होंने अभी पूरा नहीं किया था, लेकिन पिछले कुछ समय से पार्टी के अंदर उनके इस्तीफे की मांग तेज होती जा रही थी जिसकी वे लगातार अनदेखी कर रहे थे।
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आखिर सत्तारूढ़ नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी (सीपीएन) के 91 सांसदों ने उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया, जिसके बाद सरकार ने प्रतिनिधि सभा भंग करके अगले साल चुनाव कराने की घोषणा कर दी। इस फैसले को हालांकि सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है, लेकिन वहां से फिलहाल कोई आदेश नहीं आया है। लंबे समय से राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहे नेपाल के लिए किसी प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा न कर पाना कोई नई बात नहीं है। 1990 से 2008 तक चले संवैधानिक राजतंत्र के दौर में भी हाल यही था और 2008 में राजशाही के खात्मे के बाद भी नेपाल में किसी प्रधानमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया। हर साल दो साल पर प्रधानमंत्री बदल देना वहां आम बात समझी जाती रही है।

इस लिहाज से ओली सरकार का गिरना कोई बड़ी बात नहीं। बड़ी बात यह है कि उनकी पार्टी को प्रतिनिधि सभा में जबर्दस्त बहुमत हासिल था और सभा को भंग करने की सिफारिश किए जाते वक्त भी इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया था। संसद में बहुमत को लेकर कोई परेशानी नहीं थी तो प्रतिनिधि सभा की बैठक में ओली सरकार की जगह बड़ी आसानी से सीपीएन के ही किसी अन्य नेता की अगुआई में दूसरी सरकार बनाई जा सकती थी। इसके बावजूद संसद का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार ने उसे भंग कर देश पर समय से पहले चुनाव लादने का फैसला कर लिया, जो संसदीय लोकतंत्र की मूल भावना के बिल्कुल विपरीत है। ऐसा कदम उठाने वाले शीर्ष राजनेता को किसी भी लोकतंत्र में शायद ही गंभीरता से लिया जा सके।

दरअसल केपी शर्मा ओली के इस फैसले से भारत के इस पुराने आरोप की पुष्टि हुई है कि घरेलू राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए वे राष्ट्रवादी भावनाओं का उन्माद पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं।

इस क्रम में उन्होंने न केवल भारत पर ऊलजलूल आरोप लगाए बल्कि नए-नए विवाद भी पैदा किए। इससे दोनों देशों के रिश्ते तो प्रभावित हो ही रहे हैं, नेपाल के राष्ट्रीय हितों का भी नुकसान हो रहा है। बहरहाल, आगे सुप्रीम कोर्ट से कोई अप्रत्याशित फैसला नहीं आता तो लगभग तय है कि आगामी चुनावों तक सरकार की कमान ओली के हाथों में ही रहेगी। कहना मुश्किल है कि इस दौरान चुनावी फायदे के लिहाज से वह कब किस तरह का विवाद खड़ा कर देंगे। जाहिर है, नेपाल के लोगों के लिए ही नहीं, भारत सरकार के लिए भी यह अतिरिक्त सतर्कता बरतने का समय है।
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