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सरकार बनाम ट्रेड यूनियन

ट्रेड यूनियन्स की प्रस्तावित देशव्यापी हड़ताल से ठीक पहले वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कर्मचारियों को...

नवभारत टाइम्स 1 Sep 2016, 1:03 am
ट्रेड यूनियन्स की प्रस्तावित देशव्यापी हड़ताल से ठीक पहले वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कर्मचारियों को आर्थिक लाभ पहुंचाने वाली कुछ बड़ी घोषणाएं की हैं। सातवें वेतन आयोग की अनुशंसाओं के तहत 33 लाख केंद्रीय कर्मचारियों की बढ़ी सैलरी आज, यानी पहली सितंबर को संभवत: उनके खाते में पहुंच चुकी होगी। उनके बोनस का दायरा और मात्रा भी बढ़ा दी गई है, हालांकि ऐसा 2014-15 और 2015-16 के लिए ही होगा। मौजूदा वित्त वर्ष 2016-17 से तो इसे वेतन आयोग की अनुशंसाओं के तहत ही संचालित होना है।
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सरकार बनाम ट्रेड यूनियन


सबसे बड़ी पहल अकुशल मजदूरों के लिए की गई है, जो केंद्र सरकार के मामले में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों तक सीमित रहेगी। इस पहल के तहत उनकी न्यूनतम दिहाड़ी 246 रुपये के बजाय 350 रुपये बना करेगी। यह सही है कि गरीब तबके के लिए महंगाई दिनोंदिन असहनीय ढंग से बढ़ती जा रही है, फिर भी मोटा काम करने वाले श्रमिकों की दैनिक मजदूरी में सीधे 42 प्रतिशत की यह वृद्धि मामूली तो नहीं कही जा सकती।

इतने अच्छे प्रस्तावों के बावजूद ट्रेड यूनियन्स अगर 2 सितंबर को, यानी कल की जाने वाली अपनी हड़ताल पर अड़ी हुई हैं तो क्या इसको उनकी हिमाकत समझा जाना चाहिए? गौर से देखें तो ट्रेड यूनियनों द्वारा इस बार की जाने वाली हड़ताल का मुहावरा बदला हुआ है। उनका जोर अभी सरकारी कर्मचारियों के हाल-हवाल पर नहीं, बेरोजगार लोगों और बिल्कुल निचले स्तर के मजदूरों पर केंद्रित है।

काफी समय से भारतीय ट्रेड यूनियनों पर सरकारी कर्मचारियों के प्रभाव में आकर मध्यवर्गीय रंग में रंग जाने के आरोप लगते रहे हैं। यूनियन्स अब इस आरोप से मुक्त होना चाहती हैं। सरकारी कर्मचारियों, खासकर पब्लिक सेक्टर बैंक्स, उपक्रमों और कारखानों में काम करने वालों को भी पता है कि निजीकरण के नाम पर आने वाले दिनों में कभी भी उनकी छंटनी की जा सकती है और अपना दावा उन्हें दमदार तरीके से रखना है तो निचले तबकों से मिलकर चलना होगा।

ऐसे में ट्रेड यूनियन्स की यह मांग तार्किक लगती है कि जब जीएसटी के नाम पर देश में बाजार का एकीकरण किया जा रहा है तो अकुशल श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी 15 हजार रुपए तय करके श्रम का भी एकीकरण क्यों न किया जाए।

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