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इस्राइल-फलस्तीन विवाद: रुके हिंसा का यह दौर

​​बेशक यह विवाद पुराना है और दोनों में से किसी भी पक्ष को रातोंरात किसी खास फॉर्म्यूले पर सहमत कराना मुश्किल है, लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक यथास्थिति को बदलने की इकतरफा कोशिश न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए भी दोनों पक्षों में न्यूनतम विश्वास कायम करना जरूरी है।

Authored byएनबीटी डेस्क | नवभारत टाइम्स 18 May 2021, 8:17 am
इस्राइल और फलस्तीन के बीच पिछले एक हफ्ते से जारी भीषण गोलाबारी से चिंतित वैश्विक समुदाय ने ठीक ही अपील की है कि सबसे पहले दोनों पक्षों के बीच तनाव कम करने का उपाय किया जाए। हिंसा के इस ताजा दौर में डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है, इसके बावजूद दोनों में से कोई भी पक्ष युद्धविराम के लिए तैयार नहीं दिख रहा। रविवार को हुई संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में भारत ने भी जोर देकर कहा कि वहां तत्काल तनाव कम करना वक्त की जरूरत है। इससे इनकार नहीं कि इस्राइल और फलस्तीन के बीच विवाद पुराना है और बीच-बीच में इनमें हिंसक झड़प भी होती रही है। लेकिन इस तरह की हिंसा वहां 2014 से नहीं हुई थी। जाहिर है, यह हिंसा जारी रही तो इसके और फैलने की आशंका बढ़ेगी। इसलिए यह वक्त इन सवालों में जाने का नहीं है कि हिंसा किसकी तरफ से क्यों शुरू हुई थी और इसके लिए दोनों पक्षों में से कौन कितना जिम्मेदार है।
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अहम तथ्य यह है कि इस हिंसा की कीमत न केवल दोनों तरफ के बेकसूर नागरिक अपनी जान देकर चुका रहे हैं बल्कि वे लोग भी इसका शिकार हो रहे हैं, जिनका दोनों पक्षों के बीच जारी विवाद से भी किसी तरह का कोई लेना-देना नहीं है। जहां इस्राइली मिसाइल ने गाजा में मीडियाकर्मियों के दफ्तरों को निशाना बनाया, वहीं फलस्तीनी हमले का शिकार बनने वालों में युवा हिंदुस्तानी नर्स सौम्या संतोष भी हैं, जो वहां जिंदगी बचाने का काम कर रही थीं। बावजूद इसके दोनों में से कोई भी पक्ष हिंसा रोकने की तैयारी नहीं दिखा रहा तो यह साफ है कि मामला सिर्फ किसी खास कार्रवाई का जवाब देने या अपनी रक्षा के अधिकार का इस्तेमाल करने का नहीं है। हिंसा का यह दौर जहां हमास जैसे अतिवादी संगठन को फलस्तीनी समाज में अपनी पैठ बढ़ाने का मौका दे रहा है, वहीं अल्पमत में आ चुकी नेतन्याहू सरकार को अस्तित्व बचाने का आखिरी अवसर भी मुहैया करा रहा है। लेकिन जब दुनिया पहले से ही कोरोना वायरस की भीषण चुनौती का सामना कर रही हो, तो ऐसे में हिंसा की इस चिंगारी के लिए दावानल बनने का मौका नहीं छोड़ा जा सकता।

बेशक यह विवाद पुराना है और दोनों में से किसी भी पक्ष को रातोंरात किसी खास फॉर्म्यूले पर सहमत कराना मुश्किल है, लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक यथास्थिति को बदलने की इकतरफा कोशिश न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए भी दोनों पक्षों में न्यूनतम विश्वास कायम करना जरूरी है। वह काम दोनों पक्षों के बीच बातचीत से ही हो सकताा है। उम्मीद की जाए कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अपील के बाद अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का हस्तक्षेप दोनों पक्षों को इस ओर ले जाने में सफल होगा।
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