प्राथमिक शिक्षा की बदहाली की जो ताजा तस्वीर सामने आई है, वह दशकों से हर किसी की आंखों के सामने रही है, फिर भी हर कोई उसे दर्ज करने से कतराता रहा है। इस महीने एचआरडी मिनिस्ट्री ने नियम बना दिया कि पहली से आठवीं कक्षा के जिन बच्चों के पास आधार कार्ड होंगे, उन्हें ही स्कूल में मिड डे मील मिलेगा। इस नियम पर अमल शुरू होते ही पता चला कि झारखंड, मणिपुर और आंध्र प्रदेश के सरकारी प्राइमरी स्कूलों में 4.4 लाख फर्जी बच्चे पढ़ते हैं। मतलब यह कि न जाने कितने समय से यहां फर्जी नामों के लिए मिड डे मील का फंड उठाया जा रहा था।
यह कहानी किन्हीं एक-दो राज्यों तक सीमित नहीं है। दरअसल ज्यादातर राज्यों के सरकारी स्कूलों में शिक्षा का हाल इतना बुरा है कि लोग अपने बच्चों को वहां भेजना ही नहीं चाहते। गांवों में भी इंग्लिश मीडियम प्राइवेट स्कूल धड़ाधड़ खुलने लगे हैं। ऐसे में जो भी थोड़ा समर्थ है, वह अपने बच्चों को इन्हीं स्कूलों में भेजता है। फिर भी सरकारी प्राइमरी स्कूल रजिस्टर पर फर्जी नामों के सहारे जिंदा हैं तो इसकी बड़ी वजह यह है कि इन स्कूलों के साथ हजारों शिक्षकों की रोजी-रोटी जुड़ी है। गांव के सरपंच वगैरह नहीं चाहते कि स्कूल बंद होने के कारण उनकी बदनामी हो, लिहाजा वे भी जैसे-तैसे स्कूल चलाए रखने के पक्ष में रहते हैं। मामले का खराब पक्ष यह है कि मिड डे मील और दूसरी स्कीमों में आने वाले पैसों की बंदरबांट के लिए भी स्कूल का रहना जरूरी है। राज्य सरकारों के अजेंडे पर शिक्षा कभी होती ही नहीं। महाराष्ट्र में सामाजिक संगठनों के दबाव के कारण सरकार ने कुछ काम किए हैं।
दिल्ली सरकार भी कुछ कोशिशें कर रही है। लेकिन कुल मिलाकर सरकारी प्राइमरी एजुकेशन की हालत अब देश में सफेद हाथी जैसी ही हो गई है। सरकारों के पास उसे लेकर कोई विजन नहीं है, इसलिए वक्त आ गया है कि इस बारे में कोई कड़ा फैसला लिया जाए। सरकारी स्कूलों का स्तर अगर प्राइवेट स्कूलों के आसपास भी नहीं होगा तो वहां कोई नहीं पढ़ने जाएगा। स्तर सुधारना है तो स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर बनाया जाए, शिक्षकों को एडवांस ट्रेनिंग दी जाए और बुनियादी स्तर से अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य बनाई जाए। यह सब हो तो शायद कुछ समय बाद लोग-बाग उनमें अपने बच्चों को पढ़ाने का मन बनाएं। और अगर यह सब संभव न हो सके तो सरकार एक राष्ट्रव्यापी फैसला लेकर इन स्कूलों को बंद कर दे और सबको शिक्षा उपलब्ध कराने के दायित्व का निर्वाह दूसरे तरीकों से करे। कुछ अन्य देशों की तरह वह बच्चों को शिक्षा-कूपन दे सकती है, जिसका इस्तेमाल वे किसी भी स्कूल में पढ़ाई के लिए कर सकते हैं।
यह कहानी किन्हीं एक-दो राज्यों तक सीमित नहीं है। दरअसल ज्यादातर राज्यों के सरकारी स्कूलों में शिक्षा का हाल इतना बुरा है कि लोग अपने बच्चों को वहां भेजना ही नहीं चाहते। गांवों में भी इंग्लिश मीडियम प्राइवेट स्कूल धड़ाधड़ खुलने लगे हैं। ऐसे में जो भी थोड़ा समर्थ है, वह अपने बच्चों को इन्हीं स्कूलों में भेजता है। फिर भी सरकारी प्राइमरी स्कूल रजिस्टर पर फर्जी नामों के सहारे जिंदा हैं तो इसकी बड़ी वजह यह है कि इन स्कूलों के साथ हजारों शिक्षकों की रोजी-रोटी जुड़ी है। गांव के सरपंच वगैरह नहीं चाहते कि स्कूल बंद होने के कारण उनकी बदनामी हो, लिहाजा वे भी जैसे-तैसे स्कूल चलाए रखने के पक्ष में रहते हैं। मामले का खराब पक्ष यह है कि मिड डे मील और दूसरी स्कीमों में आने वाले पैसों की बंदरबांट के लिए भी स्कूल का रहना जरूरी है। राज्य सरकारों के अजेंडे पर शिक्षा कभी होती ही नहीं। महाराष्ट्र में सामाजिक संगठनों के दबाव के कारण सरकार ने कुछ काम किए हैं।
दिल्ली सरकार भी कुछ कोशिशें कर रही है। लेकिन कुल मिलाकर सरकारी प्राइमरी एजुकेशन की हालत अब देश में सफेद हाथी जैसी ही हो गई है। सरकारों के पास उसे लेकर कोई विजन नहीं है, इसलिए वक्त आ गया है कि इस बारे में कोई कड़ा फैसला लिया जाए। सरकारी स्कूलों का स्तर अगर प्राइवेट स्कूलों के आसपास भी नहीं होगा तो वहां कोई नहीं पढ़ने जाएगा। स्तर सुधारना है तो स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर बनाया जाए, शिक्षकों को एडवांस ट्रेनिंग दी जाए और बुनियादी स्तर से अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य बनाई जाए। यह सब हो तो शायद कुछ समय बाद लोग-बाग उनमें अपने बच्चों को पढ़ाने का मन बनाएं। और अगर यह सब संभव न हो सके तो सरकार एक राष्ट्रव्यापी फैसला लेकर इन स्कूलों को बंद कर दे और सबको शिक्षा उपलब्ध कराने के दायित्व का निर्वाह दूसरे तरीकों से करे। कुछ अन्य देशों की तरह वह बच्चों को शिक्षा-कूपन दे सकती है, जिसका इस्तेमाल वे किसी भी स्कूल में पढ़ाई के लिए कर सकते हैं।