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राहुल की मुश्किलें

नवभारत टाइम्स 18 Dec 2017, 8:10 am
लगभग दो दशक तक कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष पद संभालने के बाद सोनिया गांधी ने शनिवार को पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंप दी। उन्होंने इस मौके पर ठीक ही रेखांकित किया कि कांग्रेस के सामने आज जैसी चुनौतियां हैं वैसी पहले कभी नहीं रहीं। हालांकि सोनिया ने जब पार्टी अध्यक्ष पद संभाला था, तब भी पार्टी कोई अच्छी स्थिति में नहीं थी। राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस अचानक अधर में लटकी हुई पार्टी लगने लगी थी और 1991 के चुनाव में सरकार इसकी ही बनने के बावजूद इसके कमजोर होने का सिलसिला जारी रहा। इससे पहले खुद राजीव ने भी अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक बाद सरकार और पार्टी की जिम्मेदारी संभाली थी। इस लिहाज से देखें तो राहुल गांधी अपनी मां और पिता, दोनों से ज्यादा कठिन हालात में नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं।
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राहुल की मुश्किलें


राजीव गांधी को मां की मौत के चलते सहानुभूति की ऐसी लहर मिली, जिसने उन्हें अनायास ही अभूतपूर्व बहुमत दे दिया। सोनिया गांधी को कोई लहर नहीं मिली, लेकिन परिवार में हुई दो अकाल मौतों से जुड़ी संवेदना थोड़ी-बहुत उनके काम जरूर आई। इन दोनों के विपरीत राहुल को कहीं से सहानुभूति नहीं मिलने वाली। बल्कि पिता, दादी, यहां तक कि परनाना जवाहरलाल नेहरू तक की राजनीतिक गलतियों का ठीकरा उन्हीं के सिर पर फोड़ा जाएगा। उनकी एक और दिक्कत यह है कि नेहरू के बाद कांग्रेस की कोई ठोस विचाराधारा नहीं रही। यह सत्ता में रही, इसकी सरकार तमाम अच्छे-बुरे फैसले भी करती रही, लेकिन इसकी विचारधारा जरूरत के अनुसार ही तय होती रही। अलबत्ता सोनिया गांधी ने यूपीए सरकार की गरीब हितैषी और प्रगतिशील छवि बनाने की पुरजोर कोशिश की और इस क्रम में शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार आदि को कानूनी रूप प्रदान किया गया। मगर, कानून बनाना ऐसे अधिकारों के जमीन पर उतरने की गारंटी नहीं होता।

सरकार में रहते हुए या सरकार से हटने के बाद पार्टी कभी इन अधिकारों पर अमल को लेकर आम लोगों का नेतृत्व करती हुई सड़क पर उतरी हो, ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। दरअसल, लोगों के दुख-सुख को लेकर सड़क पर संघर्ष करने वाली पार्टी की पहचान कांग्रेस बहुत पहले खो चुकी है। अभी के शत्रुतापूर्ण राजनीतिक वातावरण में वह ऐसा कर पाए तो हमें एक नई कांग्रेस के दर्शन होंगे। अभी देश में जारी नफरत और गुस्से की राजनीति का जवाब राहुल गांधी शांति, प्रेम और धैर्य की राजनीति से देना चाहते हैं, यह अच्छी बात है। लेकिन आज हर चीज की कसौटी ताकत और जीत ही हो गई है। शांति, प्रेम और धैर्य के कोई मायने लोग तभी समझ पाएंगे जब ये जीत की ओर ले जाएं। सच है कि जीत हमेशा अपने हाथ में नहीं होती, लेकिन राहुल को इन अच्छे मूल्यों को संघर्ष, सक्रियता और समर्थन के साथ जोड़कर आगे बढ़ना होगा। इसके बिना लोग इनका अर्थ ‘हारे को हरिनाम’ ही लगाएंगे।

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