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अंग्रेजी का समाज

यह सूचना चौंकाने वाली है कि अंग्रेजी बोलने और उसमें काम करने की कुशलता के मामले में हम इधर

नवभारत टाइम्स 19 Nov 2016, 1:00 am
यह सूचना चौंकाने वाली है कि अंग्रेजी बोलने और उसमें काम करने की कुशलता के मामले में हम इधर थोड़ा पीछे हुए हैं, जबकि चीन ने अपनी स्थिति तेजी से सुधारी है। स्वीडन की शिक्षा संस्था ‘ईएफ एजुकेशन फर्स्ट’ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत इस साल 22वें नंबर पर है, जबकि पिछले साल वह 20वें स्थान पर था। उधर चीन अपने प्रदर्शन में सीधे आठ स्थानों का सुधार लाते हुए 39 वें स्थान पर पहुंच गया है। यह रिपोर्ट 72 देशों के 950,000 युवाओं के बीच कराए गए ईएफ स्टैंडर्ड इंगलिश टेस्ट पर आधारित है।
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अंग्रेजी का समाज


ईएफ एजुकेशन फर्स्ट गैर अंग्रेजी भाषी देशों की अंग्रेजी कुशलता का आकलन करती है। भारत के संदर्भ में यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि भारतीय भाषाओं पर जोर बढ़ने के कारण अंग्रेजी से ध्यान हटा है। देश में ऐसी कोई प्रक्रिया अभी नहीं चल रही है। हां, 60 के दशक में हिंदी समर्थक राजनीति की एक धारा जरूर उभरी थी, जिसने अंग्रेजी का विरोध किया था, लेकिन आज वह सियासत हाशिए पर जा चुकी है। पिछले एक-डेढ़ दशकों में अंग्रेजी पढ़ने-पढ़ाने को लेकर एक आम स्वीकृति भारत में कायम हुई है। नैशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशन, प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (एनयूईपीए) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2003-04 से 2010-11 के दौरान अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में दाखिले में 274 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। यह आंकड़ा समाज के बदलते माइंडसेट को बताता है।

आज के पैरंट्स भाषा के सवाल को भावुकता के बजाय व्यावहारिक नजरिए से देखने लगे हैं। उन्हें इस बात का अहसास है कि ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में अंग्रेजी तमाम सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों के अकेले माध्यम के रूप में उभरकर आई है। मॉडर्न टेक्नॉलजी और लाइफ-स्टाइल के साथ तालमेल बिठाने के लिए यह निहायत जरूरी है। यही आज रोजी-रोजगार की भाषा है और पावर की भी। लेकिन हमारे देश की समस्या यह है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का लंबे समय तक हिस्सा रहने के कारण अंग्रेजी यहां महज एक भाषा नहीं रह गई है। वह अपने आप में एक सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य भी है।

समाज के वर्गों में बंटे होने के कारण यहां अंग्रेजी के भी कई रूप हैं। अभिजात वर्ग की अंग्रेजी एकदम अलग है। उसमें ब्रिटिशर्स के लहजे को अपनाने और व्याकरण की शुद्धता पर जोर है। ईसाई मिशनरियों के स्कूल अलग तरह की अंग्रेजी पढ़ाते हैं, तो अंग्रेजी माध्यम के सामान्य स्कूलों की अंग्रेजी कुछ और ही है। आज गांवों-कस्बों तक में अंग्रेजी स्कूल खुल गए हैं, लेकिन उनमें पढ़ा रहे अध्यापकों का अंग्रेजी ज्ञान संदिग्ध है। दिक्कत यह है कि इन सामाजिक समूहों में कोई आपसी संवाद नहीं है। जाति-व्यवस्था की तरह एक-दूसरे को नीचा समझने की भावना जरूर है। चीन जैसे देश इस समस्या से मुक्त हैं। वहां हर कोई अंग्रेजी सीखने की समान कोशिश कर रहा है। भारत में भी अंग्रेजी से जुड़ी श्रेष्ठता ग्रंथि समाप्त होनी चाहिए और इसे सीखने-सिखाने में भेदभाव नहीं बरता जाना चाहिए।

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