अस्सी लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में तमाम प्रमुख दलों की ओर से उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर दिए जाने के बाद विधानसभा चुनावों की तैयारियों का एक चरण पूरा माना जा सकता है। प्रत्याशियों की सूची जारी होने से ठीक पहले सत्तारूढ़ बीजेपी का दामन छोड़कर समाजवादी पार्टी जॉइन करने वाले नेताओं ने सुर्खियां तो बटोरीं ही, यह आरोप भी लगाया कि पिछड़े और दलित वर्ग में बीजेपी से नाराजगी है। मगर बीजेपी ने उम्मीदवारों की अपनी सूची के जरिए संदेश दिया कि उसके लिए पिछड़े समूहों से आने वाले ये नेता नहीं बल्कि इन समूहों के मतदाता मायने रखते हैं।
107 उम्मीवारों वाली बीजेपी की इस सूची में 20 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे गए हैं। जिन्हें टिकट दिया गया है, उनमें 44 पिछड़े समुदायों के हैं। इनमें भी 19 अनुसूचित जातियों से आते हैं। लिस्ट जारी होने से पहले यह चर्चा थी कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अयोध्या से प्रत्याशी बनाया जा सकता है। माना जा रहा था कि राममंदिर और हिंदुत्व पर जोर की वजह से बीजेपी ऐसा कर सकती है। लेकिन पार्टी में सर्वोच्च स्तर पर फैसला किया गया कि योगी गोरखपुर से ही लड़ेंगे।
चुनावी माहौल में इसकी अलग-अलग तरह से व्याख्या होनी स्वाभाविक है, मगर महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गोरखपुर योगी का अपना इलाका रहा है। ऐसे में वहां अपने क्षेत्र की खास चिंता किए बगैर पूरे प्रदेश की सीटों पर फोकस बनाए रखना उनके लिए आसान होगा। समाजवादी पार्टी ने पहली सूची में सिर्फ 29 सीटों पर प्रत्याशी दिए हैं, जिनमें दस ही उसके हैं। बाकी 19 प्रत्याशी सहयोगी दल राष्ट्रीय लोकदल के हैं। जाहिर है समाजवादी पार्टी इस बार सबसे ज्यादा भरोसा अपने उन सहयोगी दलों और अन्य पार्टियों से आने वाले नेताओं पर कर रही है, जो उसे गैर-यादव पिछड़े समूहों से जोड़ रहे हैं।
सामाजिक समीकरण साधने की ही कोशिश में बीएसपी ने 53 प्रत्याशियों की पहली सूची में 14 मुस्लिम और 9 ब्राह्मण रखे हैं। यानी वह दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण के आजमाए फॉर्म्युले पर जोर लगा रही है। अगर कोई एक पार्टी इस बार इन जातिगत समीकरणों को काफी हद तक अनदेखा करती नजर आ रही है तो वह है कांग्रेस। वादे के मुताबिक उसने 125 प्रत्याशियों की पहली सूची में 40 फीसदी महिलाओं को तो स्थान दिया है, लेकिन उससे बड़ी बात यह है कि उसकी सूची में ऐसे नाम भी दिख रहे हैं, जो चुनावी लड़ाई के लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं माने जा सकते।
एंटी-सीएए प्रोटेस्ट के दौरान जेल भेजे जाने वाली शख्सियतों को टिकट देकर कांग्रेस ने संदेश तो बड़ा दिया है, लेकिन उसी बड़े संदेश का एक निहितार्थ यह भी है कि मौजूदा विधानसभा चुनावों में हार-जीत उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं रह गई है। बहरहाल, अलग-अलग रणनीतियों और प्राथमिकताओं का यह कोलाज भारतीय लोकतंत्र को विशिष्ट बनाता है और यही मौजूदा चुनावों को दिलचस्प भी बना रहा है।
107 उम्मीवारों वाली बीजेपी की इस सूची में 20 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे गए हैं। जिन्हें टिकट दिया गया है, उनमें 44 पिछड़े समुदायों के हैं। इनमें भी 19 अनुसूचित जातियों से आते हैं। लिस्ट जारी होने से पहले यह चर्चा थी कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अयोध्या से प्रत्याशी बनाया जा सकता है। माना जा रहा था कि राममंदिर और हिंदुत्व पर जोर की वजह से बीजेपी ऐसा कर सकती है। लेकिन पार्टी में सर्वोच्च स्तर पर फैसला किया गया कि योगी गोरखपुर से ही लड़ेंगे।
चुनावी माहौल में इसकी अलग-अलग तरह से व्याख्या होनी स्वाभाविक है, मगर महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गोरखपुर योगी का अपना इलाका रहा है। ऐसे में वहां अपने क्षेत्र की खास चिंता किए बगैर पूरे प्रदेश की सीटों पर फोकस बनाए रखना उनके लिए आसान होगा। समाजवादी पार्टी ने पहली सूची में सिर्फ 29 सीटों पर प्रत्याशी दिए हैं, जिनमें दस ही उसके हैं। बाकी 19 प्रत्याशी सहयोगी दल राष्ट्रीय लोकदल के हैं। जाहिर है समाजवादी पार्टी इस बार सबसे ज्यादा भरोसा अपने उन सहयोगी दलों और अन्य पार्टियों से आने वाले नेताओं पर कर रही है, जो उसे गैर-यादव पिछड़े समूहों से जोड़ रहे हैं।
सामाजिक समीकरण साधने की ही कोशिश में बीएसपी ने 53 प्रत्याशियों की पहली सूची में 14 मुस्लिम और 9 ब्राह्मण रखे हैं। यानी वह दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण के आजमाए फॉर्म्युले पर जोर लगा रही है। अगर कोई एक पार्टी इस बार इन जातिगत समीकरणों को काफी हद तक अनदेखा करती नजर आ रही है तो वह है कांग्रेस। वादे के मुताबिक उसने 125 प्रत्याशियों की पहली सूची में 40 फीसदी महिलाओं को तो स्थान दिया है, लेकिन उससे बड़ी बात यह है कि उसकी सूची में ऐसे नाम भी दिख रहे हैं, जो चुनावी लड़ाई के लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं माने जा सकते।
एंटी-सीएए प्रोटेस्ट के दौरान जेल भेजे जाने वाली शख्सियतों को टिकट देकर कांग्रेस ने संदेश तो बड़ा दिया है, लेकिन उसी बड़े संदेश का एक निहितार्थ यह भी है कि मौजूदा विधानसभा चुनावों में हार-जीत उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं रह गई है। बहरहाल, अलग-अलग रणनीतियों और प्राथमिकताओं का यह कोलाज भारतीय लोकतंत्र को विशिष्ट बनाता है और यही मौजूदा चुनावों को दिलचस्प भी बना रहा है।