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शक या सनक जब सताने लगे... मेनिया और सिजोफ्रेनिया के बारे में एक्‍सपर्ट्स से जानिए

Mania And Schizophrenia Symptoms And Treatment: मेंटल हेल्‍थ पर हमारी सीरीज में आज हम देश के बेहतरीन एक्सपर्ट्स से बात करके लेकर आए हैं मेनिया और सिजोफ्रेनिया पर सारी जानकारी

Written byलोकेश के. भारती | Edited byदीपक वर्मा | नवभारत टाइम्स 4 Sep 2022, 8:38 am
उत्साह होना बहुत अच्छी बात है, लेकिन जब यही उत्साह सभी सीमाओं को तोड़ते हुए उन्माद में बदल जाए और किसी शख्स पर ही हावी हो जाए तो परेशानी बन जाता है। उसका असलियत से नाता टूट जाए, सामान्य काम करना भी मुश्किल हो जाए तो शायद इलाज की जरूरत है क्योंकि यह स्थिति मेनिया यानी सनक या उन्माद की हो सकती है। इसी तरह अगर कभी कोई शक को ही हकीकत मान ले और अपनी व दूसरों की ज़िंदगी बेहाल कर ले तो भी इलाज की जरूरत हो सकती है क्योंकि यह सिजोफ्रेनिया हो सकता है। इसी बारे में देश के बेहतरीन एक्सपर्ट्स से बात करके जानकारी दे रहे हैं लोकेश के. भारती
नवभारतटाइम्स.कॉम Mania Mental Health
प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर


6 सबसे खास बातें
  1. मेनिया एक मनोरोग है। इसे दवाओं और काउसंलिंग से काबू में रखा जा सकता है, जैसे शुगर या बीपी को कंट्रोल किया जाता है।
  2. कई बार मेनिया के मरीजों को मेडिटेशन यानी ध्यान न करने की सलाह दी जाती है। इसकी वजह से मेनिया बढ़ने का खतरा रहता है।
  3. बाइपोलर डिसऑर्डर में भी मेनिया और डिप्रेशन की स्थिति बनती है। यह ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि इसमें दोनों बीमारियों का इलाज करना होता है।
  4. सिजोफ्रेनिया अमूमन बचपन या किशोरावस्था में उभरता है। इसमें शख्स को डरावने साये जैसी चीजें दिखाई देती हैं जो हकीकत में होती नहीं हैं।
  5. मानसिक बीमारियों के लक्षण जल्दी पहचान लें तो इलाज आसान है। अक्सर तब डॉक्टर के पास ले जाते हैं जब उसके साथ रहना मुश्किल हो जाता है।
  6. परिवार और करीबियों की भूमिका अहम होती है क्योंकि मरीज खुद को बीमार नहीं समझता। दवा खिलाने से लेकर, काउंसलिंग तक जिम्मेदारी निभानी पड़ती है।
उदाहरणों से समझें मन की गंभीर बीमारियां

केस: 1
मेनिया का मामला

गजेंद्र ग्रैजुएशन के फाइनल ईयर के स्टूडेंट हैं। उसकी उम्र 24 साल के करीब है। 12वीं के बाद 3-4 साल तक पढ़ाई छोड़कर वह कहीं जॉब कर रहे थे। ग्रैजुएशन के सेकंड ईयर में उनकी शादी हो गई। अभी उनका एक बच्चा भी है। पिछले 2 महीनों से उनके घरवाले परेशान हैं। गजेंद्र रात-रात भर जागकर भजन सुनते रहते हैं। पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी है। पत्नी और बच्चे की कोई फिक्र नहीं। वह बार-बार यही कहते हैं कि मैं सब कुछ छोड़कर बाबा बन जाऊंगा। कभी कहते हैं कि मैं किसी आश्रम में चला तो कभी यह कि हिमालय पर जाकर तपस्या करूंगा। कभी-कभी कहते हैं कि मैं लोगों को धार्मिक ज्ञान दूंगा जबकि उसके पास खुद ही कोई ज्ञान नहीं है। कई बार तो उन्होंने भागने की कोशिश भी की। दरअसल मामला मेनिया का था। आखिर में घरवाले परेशान होकर उसे एक सायकायट्रिस्ट के पास लेकर आए। वह सायकायट्रिस्ट की बात सुनने के लिए भी तैयार नहीं थे। इसलिए पहले 3-4 दिन की दवा दी गई और कहा गया कि जब स्थिति बेहतर हो तो फिर ले आना। उन्हें दवाओं से कुछ फायदा जरूर हुआ है। यह जरूरी नहीं कि ऐसे सभी मरीज एक ही तरह की बातें करें। हर किसी के विषय अलग हो सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि वह शख्स सामान्य से बिलकुल ही अलग व्यवहार करता है। ऐसा लगेगा कि वह अपनी ही दुनिया में गुम है।

केस: 2
बाइपोलर डिसऑर्डर

ऋचा की फैमिली लाइफ आजकल सही नहीं चल रही है। उनके पति सर्वेश के मूड का पता ही नहीं चलता। एक महीना पहले की बात है जब सर्वेश इस बात पर गुस्सा होने लगे कि दाल में पानी ज्यादा था। यह रिऐक्शन ऐसा था कि ऋचा डर गई। ऋचा सोचने लगी कि वह इससे पहले इन छोटी बातों पर कभी नाराज नहीं हुए थे। वह भी इतना ज्यादा। कुछ दिन गुजरे होंगे कि सर्वेश बहुत ज्यादा उदास हो गए। न किसी से बोलना और न ऑफिस जाना। सब काम छोड़ दिए। खाने-पीने का भी होश नहीं। यह सब कुछ महीनेभर में हुआ है। ऋचा को लगा कि शायद ऑफिस में काम की वजह से या शायद बॉस से झगड़े की वजह से ऐसा हुआ है। ऋचा ने उनके साथ काम करनेवालों से बात की। उन्होंने बताया कि ऐसी कोई बात नहीं है, लेकिन वह काफी चिड़चिड़े हो गए थे। बिना मतलब बहस करने लगते थे। कुछ दिनों से ऑफिस भी नहीं आ रहा है। कुछ तो गड़बड़ है। वह पहले तो ऐसा कभी भी नहीं था। इस पर ऋचा पहले जनरल फिजिशन के पास गई। डॉक्टर के दिए सुझाव पर ऋचा ने एक सायकायट्रिस्ट को दिखाया। उन्होंने बताया कि लक्षण बाइपोलर डिसऑर्डर के लग रहे हैं। उन्होंने दवा दी। कुछ फायदा हुआ है। आगे भी काउंसलिंग होगी।

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केस: 3
राजेंद्र जी की उम्र 62 साल है। पहले हाई स्कूल के टीचर थे। अब रिटायर हो चुके हैं। पेंशन इतनी है कि अपनी और पत्नी की ज़िंदगी आराम से कट रही है। उनके एक बेटा और एक बेटी है, दोनों विदेश में सेटल हो गए हैं। उन्होंने पापा को अपने पास रहने के लिए कई बार बुलाया, लेकिन राजेंद्र जी जाने के लिए तैयार ही नहीं हुए। उनकी पत्नी जरूर तैयार थीं, बच्चों के साथ वक्त बिताने के लिए। राजेंद्र जी का बेटा कल्पेश विदेश में एक सायकायट्रिस्ट हैं। कल्पेश की बात हफ्ते-दो हफ्ते में एक बार अपने माता-पिता से होती रहती है। कुछ वक्त पहले पिता ने कल्पेश से कहा कि चाहो तो अपनी मम्मी को ले जाओ। मैं अकेले रह लूंगा। जो शख्स पिछले 40 साल से पत्नी के साथ ही रह रहा था और जो शायद ही कभी अलग हुए हों। वह अचानक ऐसी बात कहने लगे तो हैरत स्वाभाविक है। कल्पेश ने कहा कि मां नहीं मानेंगी। आना है तो दोनों साथ आएं। बात आई-गई हो गई। कुछ दिनों के बाद राजेंद्र जी ने फिर बेटे से कहा कि मैं कह रहा हूं कि अपनी मम्मी को ले जाओ। जब पूछा गया कि क्यों भेजना चाहते हैं? तब उन्होंने कहा कि वह लोगों से मेरी शिकायत करती रहती है कि मैं उसका भला नहीं चाहता। मैंने उसकी ज़िंदगी बर्बाद कर दी है। उसे विदेश में घूमने का मौका मिला था, लेकिन मेरी वजह से खराब हो रहा है। हालांकि सच यह था कि राजेंद्र की पत्नी कभी भी पति को छोड़ना नहीं चाहतीं। कल्पेश ने पूछा कि वह आपकी शिकायत किससे करती हैं? राजेंद्र जी ने कहा कि सभी से। वह मेड, पड़ोसी और पूजा करते समय भगवान से भी मेरी शिकायत करती रहती है। कल तो हद हो गई जब एक भिखारी आया तो उससे भी मेरी शिकायत कर रही थी। मुझे अब तो उसकी शिकायत वाली आवाजें सुनाई देती रहती हैं। कल्पेश चूंकि सायकायट्रिस्ट हैं, इसलिए पता चल गया कि उनके पिता सिजोफ्रेनिया के मरीज बन चुके हैं।

जब दिमाग में केमिकल लोचा हो तो मुन्ना भाई एमबीबीएस वाली स्थिति बन जाती है। गांधी जी के बारे में ज्यादा पढ़ने पर गांधी जी ही चारों ओर दिखने लगते हैं। इतना ही नहीं, उनसे बातें भी करते हैं। लेकिन हकीकत में वह होते नहीं। जब ऐसी स्थिति आम ज़िंदगी में भी बनने लगे, तब इलाज की जरूरत होती है। इसी तरह कई बार इतने उन्मादी बन जाएं कि हकीकत से नाता ही टूट जाए। पॉकेट या अकाउंट में सौ रुपये भी न हों, लेकिन किसी को करोड़ों रुपये दान देने की बात करे, वह भी गंभीरता के साथ। कई बार तो बैंक चेक भी साइन करके दे दें तो इलाज कराना जरूरी हो जाता है। इसी तरह तमाम सबूतों और गवाहों को झूठलाते हुए जब कोई शख्स अपने शक को ही आखिरी सच माने तो भी मामला मानसिक बीमारी का बनता है। ऐसे लक्षणों वाली बीमारियों में: मेनिया, बाइपोलर डिसऑर्डर, सिजोफ्रेनिया, पैरानॉइड और डिल्यूशनल डिसऑर्डर का नाम जरूरी लिया जा सकता है।
कई पाठकों ने यह सवाल पूछा है कि मेनिया जैसी समस्याओं से बचने के लिए क्या उपाय कर सकते हैं? लेकिन ऐसी समस्याएं न हों, यह सुनिश्चित करना मुश्किल है। अगर जीवन को अनुशासित तरीके से जिएं तो ऐसी परेशानियों से दूर रहा जा सकता है।

ऐसे दूर रहेंगी मानसिक परेशानियां
नींद पूरी करें। हर दिन 6 से 8 घंटे की नींद बहुत जरूरी है। यह मानसिक और दूसरी शारीरिक परेशानियों जैसे शुगर, बीपी आदि से बचने में भी फायदेमंद है।

हर दिन 15-20 मिनट के योग और 30 मिनट की वॉक से मानसिक मजबूती भी मिलती है।

तय समय पर खाना खाएं। देर रात खाने से बचें।

अगर किसी की फैमिली में ऐसी बीमारियों का इतिहास रहा है तो उन्हें ज्यादा सचेत होने की जरूरत है। अगर किसी सदस्य को जरा भी लक्षण आए तो फौरन ही किसी सायकायट्रिस्ट या क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट से मिलना चाहिए। मेनिया, सिजोफ्रेनिया जैसी बीमारियों के लक्षणों की विस्तार से चर्चा हम आगे करेंगे।

बेहतर न्यूट्रिशन यानी बैलंस्ड डाइट, जिसमें कार्बोहाइड्रेट्स (चावल, रोटी आदि), प्रोटीन (दालें, पनीर, सोयाबीन आदि), फैट (घी, तेल आदि), मिनरल्स (आयरन, सोडियम आदि), विटामिन्स (विटामिन के, ए, बी, सी, डी आदि), फाइबर (सलाद आदि) सभी शामिल हों।

नशे से दूरी बनाएं। नशे की लत है तो दिमाग में केमिकल लोचा होने की आशंका ज्यादा रहती है। इसलिए जब ऐसा शख्स मेनिया या दूसरी बीमारियों का इलाज कराने जाता है तो उसे ज्यादा पोटेंसी की दवा देनी पड़ती है।

अगर लगातार गंभीर डिप्रेशन की परेशानी हो तो भी इस तरह की गंभीर मानसिक बीमारी की आशंका बढ़ जाती है। इसलिए अगर किसी को डिप्रेशन की परेशानी है तो इसे टालना नहीं चाहिए। कई बार बीमारियों को टालने से वह ज्यादा परेशान करती है। इलाज जरूर करवाएं।

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कुछ दिन उन्माद, कुछ दिन उदासी
ये बाइपोलर डिसऑर्डर की निशानी हैं। जैसा कि नाम से ही साफ है बाइ यानी दो पोल का बनना। एक शख्स में जब मेनिया के साथ डिप्रेशन के लक्षण भी आ जाएं (ऐसा लगे कि जिंदगी खत्म, हर समय उदासी) तो वह स्थिति बाइपोलर की बनती है। बाइपोलर के मरीज में डिप्रेशन की स्थिति किसी सामान्य डिप्रेशन के मरीज से ज्यादा खतरनाक मानी जाती है। इसलिए इलाज बहुत जरूरी हो जाता है। डिप्रेशन के बारे में विस्तार से जानने के लिए हमारे फेसबुक पेज SundayNbt पर जाएं और depression टाइप करें। लेख मिल जाएगा।
ऐसा नहीं है कि बाइपोलर डिसऑर्डर का मरीज सुबह मेनिया की स्थिति में होगा और दोपहर या शाम में डिप्रेशन का। अमूमन मेनिया की स्थिति एक हफ्ते या इससे ज्यादा चलती है।
डिप्रेशन की स्थिति 2 हफ्ते या ज्यादा चलती है।

सुहानी कल्पना में जीना
यह मेनिया की निशानी है। इसमें मरीज किसी कल्पना को हकीकत समझ बैठे और उसी तरह बर्ताव भी करने लगे तो संभव है कि वह मेनिया से पीड़ित हो। वह उन्मादी हो जाता है। खुद को सबसे महान समझने लगता है। इसे डिप्रेशन से विपरीत स्थिति कह सकते हैं। मेनिया के लक्षण बाइपोलर डिसऑर्डर में भी उभर सकते हैं और सिर्फ मेनिया के लक्षण भी उभर सकते हैं, एक अलग बीमारी के रूप में। ऐसे में इलाज का तरीका बदल जाता है।

लक्षण
  • जब कोई शख्स अनजान लोगों से ज्यादा बातें करने लगे।
  • अनजान लोगों को भी अपने बारे में बिना पूछे ही सब कुछ बताने लगे।
  • मामूली बातों पर भी जरूरत से ज्यादा खुश हो जाए।
  • अचानक बहुत अलग तरीके के कपड़े पहनने लगे।
  • उसे नींद न आए या बहुत कम आए, फिर भी नींद की जरूरत महसूस न हो।
  • पहले की तुलना में बहुत खाने की इच्छा दिखाना।
  • पहले की तुलना में सेक्स में बहुत ज्यादा रुचि दिखाना।
  • किसी काम में हद से ज्यादा जल्दबाजी दिखाना।
  • एकाग्रता में भारी कमी।
मेनिया कई तरह के हो सकते हैं
इरिटेबल मेनिया: जैसा कि नाम से ही साफ है, इसमें शख्स बहुत ज्यादा चिड़चिड़ा हो जाता है। बात-बात में गुस्सा आता है।

यूफोरिक मेनिया
किसी भी स्थिति से उसे फर्क नहीं पड़ता। अपने में ही मस्त रहता है। मान लें कि अगर उसका घर जल रहा है तो भी वह खुश ही रहेगा।

मेनिया के साथ साइकोटिक या बिना साइकोटिक लक्षण के: ऐसा लगता है कि दुनिया से रिश्ता-नाता टूट गया हो। अजीब बर्ताव करता है। भ्रम की स्थिति हो सकती है।

जब मेनिया हल्का हो...
यह हाइपोमेनिया का लक्षण है। यह मुमकिन है कि मरीज सामान्य व्यहार करे, पर मेनिया के हल्के लक्षण हो सकते हैं। इसलिए इसे मेनिया से अलग रखा जाता है। कई बार कुछ लोगों में मेनिया सीजनल हो जाता है यानी कुछ समय तक मेनिया वाले लक्षण रहते हैं, फिर वह सामान्य हो जाता है। यह भी मुमकिन है कि किसी शख्स में मेनिया के लक्षण कम लेवल तक आए। हाइपोमेनिया का मरीज किसी भी काम को बहुत जल्दी खत्म करना चाहता है, लेकिन यह सामान्य से बहुत ज्यादा तेज होना चाहिए। ज्यादातर मामलों में हाइपोमेनिया का इलाज न होने से वह शख्स मेनिया का मरीज भी जल्द ही बन जाता है।

ऐसे लोग अपने सामान्य काम भी कर लेते हैं, लेकिन साथ में कई दूसरे लक्षण भी मौजूद होते हैं:
  • चिड़चिड़ापन
  • सामान्य से ज्यादा खुशी
  • जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास
  • बिना सोचे-समझे कोई काम शुरू कर देना
  • नींद की कमी के बाद भी फ्रेशनेस महसूस करना
  • एकाग्रता में कमी
  • नशे की तरफ झुकाव
हकीकत से अलग देखना-सुनना
यह सिजोफ्रेनिया का लक्षण है। इसे क्रॉनिक यानी ज्यादा गंभीर मानसिक बीमारी कह सकते हैं। सिजोफ्रेनिया एक ग्रीक शब्द से बना है जिसका सीधा-सा मतलब है 'स्प्लिट माइंड'। इसमें वह शख्स अपनी स्थिति को समझ नहीं पाता और ज्यादातर बार बता भी नहीं पाता। बिना सोचे-समझे वह कुछ भी बोलने लगता है।
यह मनोरोग की एक गंभीर बीमारी है। पूरी दुनिया में 1 फीसदी लोगों में सिजोफ्रेनिया के लक्षण हो सकते हैं। यह बीमारी 30 से 40 साल के बीच या फिर ज्यादातर 60 साल के बाद ज्यादा देखी जाती है।

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लक्षण
  • इसमें असलियत से नाता पूरी तरह टूट जाता है।
  • मरीज सिर्फ अपने विचारों को ही सही मानता है।
  • अपने विचारों द्वारा बनाई गई दुनिया को असली मानता है।
  • यह भी मुमकिन है कि वह शख्स बात करते समय टॉपिक बार-बार बदले।
  • शक करना भी एक बड़ा लक्षण है।
  • जो लोग ज्यादा नशा करते हैं, उनमें सिजोफ्रेनिया का खतरा ज्यादा होता है। अल्कोहल न्यूरोट्रांसमीटर को सामान्य नहीं रहने देता।
यह कई तरह का होता है
1. पैरानॉइड सिजोफ्रेनिया: इसके मरीज ज्यादा होते हैं। इसमें शख्स भ्रम की स्थिति में होता है। उसका सामान्य जीवन अव्यवस्थित हो जाता है। उसे कानों में ऐसी आवाजें सुनाई देने लगती हैं जो असल में होती ही नहीं। शक होना आम रहता है। किसी को कोई डरावना साया दिखाई देने लगता है जो असल में होता ही नहीं।
2. कैटटोनिक सिजोफ्रेनिया: जब शख्स भावनात्मक रूप से कुंद हो जाए। चेहरे पर कोई भाव न आए। एक ही पोजिशन में वह घंटों तक रह सकता है। स्थिति ज्यादा खतरनाक हो जाती है तो मरीज का शरीर ऐंठ जाता है। ऐसे में Electroconvulsive Therapy) भी देनी पड़ती है।
3. अनडिफ्रेंशिएटिड सिजोफ्रेनिया: इसमें एक ही शख्स में कैटटोनिक सिजोफ्रेनिया और पैरानॉयड सिजोफ्रेनिया के लक्षण आ जाते हैं।
4. सिंप्लर सिजोफ्रेनिया: इसमें मरीज धीरे-धीरे समाज से कटता जाता है। उसका बर्ताव धीरे-धीरे बदलता जाता है। इसलिए कई बार ऐसे शख्स की परेशानी समझने में देरी हो जाती है।

हद पार करके शक करना
  • यह डिलूशनल डिसऑर्डर का लक्षण है। इसमें एक बार शक हो जाता है तो वह दिमाग से निकलता नहीं। वह पक्का हो जाता है।
  • इस तरह के मामले में यह देखा जाता है कि कितने भी सबूत दिखाने पर भी उस शख्स का शक खत्म नहीं होता।
  • ज़िंदगी उसी शक के इर्द-गिर्द घूमती रहती है।
  • हर समय, उठते-बैठते उसी शक के बारे में सोचना उसकी जीवन शैली का सबसे बड़ा हिस्सा होता है।
  • उसकी रातों की नींद गायब हो जाए।
  • यह पैरानॉइड डिसऑर्डर से इस तरह अलग है कि इसमें शक करना सबसे अहम है, अमूमन यह शक एक खास तरह का एक ही शख्स के बारे में हो सकता है। इसमें कान में आवाजें नहीं सुनाई देती हैं। हम अक्सर खबरों में सुनते हैं कि पति ने पत्नी की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी कि उसे उसकी पत्नी के चरित्र पर शक था। इस तरह के मामलों में इलाज में देरी नहीं करनी चाहिए। जब शख्स शक वाली बातें करें। उसे पर्याप्त सबूत देने पर भी वह न माने। शक की वजह से गुस्सा करना या हिंसक होने लगे।

कब जाएं डॉक्टर के पास
ऊपर जितनी भी तरह की बीमारियां बताई गई हैं, अगर किसी शख्स में ऐसे लक्षण उभरने लगे और वह शख्स अपना सामान्य काम न कर पाए तो उसे डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।जब लक्षण आ जाएं तो देर नहीं करनी चाहिए। देरी करने से स्थिति ज्यादा गंभीर हो जाती है। ऐसे में दवा लंबे समय तक लेनी पड़ सकती है। इसलिए लक्षण उभरने पर देर नहीं करनी चाहिए।

कैसे होता है इलाज
  • डॉक्टर पहले मरीज की स्थिति देखते हैं। उनसे बातें करते हैं। अगर जरूरी लगता है तो दवा शुरू की जाती है। दवा देने से स्थिति कुछ बेहतर होने पर ही काउंसलिंग शुरू की जाती है। मेनिया के मामले में अमूमन पहले काउंसलिंग नहीं की जाती।
  • इसमें पहले मरीज को मूड स्टेबलाइज करनेवाली दवाएं दी जाती हैं। दरअसल मरीज के मन में शक इस तरह पैठ बना लेता है कि दूसरों की बातें न सुनना चाहता है और न समझना। इन स्थितियों से निकलकर मरीज कुछ बेहतर स्थिति में पहुंचे, इसमें दवा काम करती है।लिथियम और सोडियम वेलप्रोऐट जैसी साल्ट से युक्त दवाओं का उपयोग बायपोलर डिसऑर्डर के केस में किया जाता है। इनसे उत्तेजना में कमी आती है। इनके अलावा ऐंटिसायकोटिक दवा भी दी जाती है। कभी दवा मिस नहीं करनी चाहिए क्योंकि इससे मरीज में तेजी से लक्षण उभर सकते हैं। अगर कभी सुबह की दवा मिस हो जाए तो उसे दोपहर या रात में लेना है या नहीं, डॉक्टर से पूछना चाहिए।

परिवार और करीबी की भूमिका सबसे अहम
स्ट्रेस, डिप्रेशन या एंग्जाइटी के मामले में अमूमन मरीज को यह पता होता है कि उसे कोई समस्या हो रही है, जिसका इलाज डॉक्टर के पास है। लेकिन मेनिया, सिजोफ्रेनिया आदि परेशानियों में अमूमन मरीज को पता ही नहीं होता कि वह बीमार है। वह अपनी दुनिया में ही मस्त रहता है। इसलिए ऐसे मरीजों के इलाज में उस शख्स से ज्यादा उसके परिवार के सदस्य जो उसके साथ रहते हों, उनकी भूमिका अहम हो जाती है। वे ही सबसे पहले लक्षणों को देखते हैं और महसूस करते हैं। मरीज को क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट या सायकायट्रिस्ट के पास ले जाने, दवा खिलाने और काउसंलिंग कराने तक उनकी अहम भूमिका होती है। सायकायट्रिस्ट के पूछने पर मरीज के लक्षणों के बारे में परिवार के सदस्य ही विस्तार से बताते हैं। कई बार काउंसलिंग की हर दूसरे या तीसरे दिन सिटिंग होती है।

इन बातों का भी ध्यान रखना जरूरी है:
1. अगर नियमित इलाज हो तो फायदा जरूर होता है।
2.. चूंकि इन बीमारियों में मरीजों को अहसास नहीं होता कि वे बीमार हैं, ऐसे में परिवार और कई बार दोस्तों पर मानसिक और शारीरिक ज्यादा दबाव रहता है। दरअसल, मानसिक रोगी के नाम पर कई बार महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता था। इसलिए सरकार ने कानून बनाया कि मानसिक इलाज शुरू करने से पहले मरीज की सहमति जरूरी है। अगर मरीज तैयार न हो, लेकिन उसकी स्थिति सहमति देने की भी नहीं है तो स्थानीय पुलिस या कोर्ट की मदद से इलाज कराया जा सकता है। इन्हीं कारणों से कई बार इलाज की प्रक्रिया धीमी भी हो जाती है। फिर भी लक्षण आने पर इलाज जितनी जल्दी शुरू हो जाए, उतना बेहतर।


एक्सपर्ट पैनल
-डॉ. निमेष जी. देसाई वरिष्ठ मनोचिकत्सक, पूर्व निदेशक, IHBAS
-डॉ मीनाक्षी मनचंदा, एसो. डायरेक्टर, सायकायट्री, डिपार्टमेंट, एशियन हॉस्पिटल
-डॉ. ललित बत्रा, प्रफेसर एंड हेड, सायकायट्री, SMS मेडिकल कॉलेज
-डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी, सीनियर सायकायट्रिस्ट
-डॉ. पंकज कुमार, सीनियर कंसल्टेंट सायकायट्रिस्ट ऐंड डी-एडिक्शन स्पेशलिस्ट
-डॉ. परमजीत सिंह कंसल्टेंट सायकायट्रिस्ट, PSRI हॉस्पिटल
-डॉ. जया सुकुल क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट, मैरिंगो QRG हॉस्पिटल
लेखक के बारे में
लोकेश के. भारती
लोकेश के. भारती, टाइम्स ग्रुप और नवभारत टाइम्स में पिछले 14 साल से काम कर रहे हैं। हेल्थ, रियल एस्टेट, एजुकेशन, जॉब्स, मूवी जैसे विषयों पर लिखते रहे हैं। आजकल संडे नवभारत टाइम्स में जस्ट ज़िंदगी, एजुकेशन, धर्म आदि पेज देखते हैं। इन्होंने हेल्थ के अलग-अलग टॉपिक जैसे- लिवर, किडनी, लंग्स, इम्युनिटी, न्यूरो, हार्ट, डाइट, इनफर्टिलिटी, नेचुरोपैथी, आयुर्वेद, होमियोपैथी, कोरोना के अलग-अलग पहलुओं आदि विषयों पर देश के टॉप डॉक्टर्स और एक्सपर्ट्स से बात कर शानदार स्टोरी लिखी है। इन्होंने एजुकेशन और जॉब्स पर भी काफी लिखा है। धर्म-अध्यात्म पर इनकी लेखनी भी खूब पसंद की गई है।... और पढ़ें

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