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सचाई में भावना, भावना में सचाई

हाल ही में हुए जयपुर लिटेरचर फेस्टिवल में मैंने 'पोस्ट ट्रुथ' पर चर्चा की, जिसे ऑक्सफ़र्ड डिक्शनरी ने 2016 साल का शब्द घोषित किया था...

नवभारत टाइम्स 6 Feb 2017, 4:13 pm
हाल ही में हुए जयपुर लिटेरचर फेस्टिवल में मैंने 'पोस्ट ट्रुथ' पर चर्चा की, जिसे ऑक्सफ़र्ड डिक्शनरी ने 2016 साल का शब्द घोषित किया था। 'पोस्ट ट्रुथ' एरा को पोस्ट ट्रंप एरा भी कहा जा रहा है। आखिर यह 'पोस्ट ट्रुथ' क्या है, सरल भाषा में कहें तो जब भावनाएं और यकीन तथ्यों यानी फैक्ट्स से बड़े हो जाएं तो उसे 'पोस्ट ट्रुथ' कहा जाएगा यानी आंशिक-सत्य, मिथकीय-सत्य, काल्पनिक-सत्य आप कुछ भी कह सकते हैं।
नवभारतटाइम्स.कॉम column by prasoon joshi
सचाई में भावना, भावना में सचाई


कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, वहां ऐसा हो रहा है। भावनाएं और यकीन बड़े हो गए हैं। लोग तथ्यों की पड़ताल किए बिना भावुक हो जाते हैं। पर मेरी राय में यह कोई नई बात नहीं है।

भावनाएं, यकीन और आस्थाएं हमेशा से बड़ी रही हैं। भावनाएं ही हैं जो साधारण को असाधारण बना देती हैं। तथ्य कहते हैं कि सपने मत देखो और यकीन कहता है कि यह सपना हकीकत बन सकता है। संघर्ष करो। ऐसा होता भी है। तथ्य कहते हैं विरोधी की सेना बहुत बड़ी है और गुरु गोविंद सिंह कहते हैं 'सवा लाख से एक लड़ावां...।'

भावनाएं कहती हैं कि पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं और देश पराधीनता की बेड़ियां काट डालता है। अगर तथ्यों की बात करें तो अंग्रेजों का शासन भी बुरा नहीं था। उन्होंने सड़कें बनवाईं, रेल चलवाई, सती प्रथा खत्म की। इसके बावजूद लोगों का मन पराधीनता में रहने का नहीं था। यही वजह थी कि लोगों ने आंदोलन किया और अंग्रेजों को देश से बाहर निकाला। तो यहां भी भावना का ही जोर था। यह भावना ही थी जो लोग इतनी बड़ी फौज शक्तिशाली सरकार से लड़ पड़े। लोग भावुक होकर ही वोट देते हैं, सरकारें गिरा देते हैं, बड़े-बड़े आंदोलन कर देते हैं।

मन के एक कोने से आवाज आती हैः एकला चलो रे और लोग बढ़ते जाते हैं, कारवां बनता चलता है। तो क्या आज कोई बदलाव है या सब कुछ पहले जैसा ही है? मेरा मानना है कि सब कुछ पहले की तरह नहीं है। कुछ बदला भी है। और अगर कुछ चिंता का विषय है तो वह यह कि कुछ लोग आज झूठ को सच बना कर पेश कर रहे हैं।

सोशल मीडिया के इस युग में अगर आज हरेक के पास एक आवाज है तो वहीं ज़िम्मेदार आवाजों की कमी भी है, जिस पर चिंता करने की जरूरत है। इस बात पर भी विचार की जरूरत है कि क्या हम बिना ज्यादा सोचे-समझे आज किसी भी विषय पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं, बिना मंथन किए धारणाएं बना लेते हैं। बिना पड़ताल किए किसी को भी दोषी ठहरा देते हैं। सिर्फ इसलिए कि किसी ने नाटकीय अंदाज में सोशल मीडिया पर या किसी भड़काऊ वीडियो के जरिए हमें उकसाने की कोशिश की है।

यह सच है कि सारे रिश्ते भावनाओं से बनते हैं। ऐसा कोई भी समाज अकल्पनीय होगा, जहां भावना का स्थान नहीं होगा। अब भावनाओं को सही दिशा देना हमारे हाथ में है। समय के साथ हमें नए-नए सवालों से रूबरू होना होगा, पर सच हमेशा सच ही रहेगा। जैसा कि दार्शनिक नीत्शे ने कहा था कि सच को सब अपनी-अपनी तरह देखते हैं। मुझे लगता है आज हम एक ही समय में एक ही विषय पर अलग-अलग विचार एक साथ जान सकते हैं और इन विचारों की रोशनी हमारे लिए किसी भी बात के स्वरूप और स्पष्ट कर सकती है।
हम भ्रमित हों या सुलझें, यह चुनाव हमारा होगा। हालांकि बदलाव शाश्वत है और बदलाव को दिशा देना हमारे हाथ में है।

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