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अनशन से पॉलिटिक्स तक आयरन लेडी का सफर

मणिपुर की इरोम शर्मिला धुन की पक्की हैं। एक मांग को लेकर पिछले 16 बरसों से भूख हड़ताल पर हैं। लेकिन अपनी मांग को लेकर राजनेताओं की उदासीनता को देखते हुए अब उन्होंने खुद राजनीति में उतरने का फैसला किया है।

नवभारतटाइम्स.कॉम 31 Jul 2016, 2:37 pm
मणिपुर की इरोम शर्मिला धुन की पक्की हैं। एक मांग को लेकर पिछले 16 बरसों से भूख हड़ताल पर हैं। लेकिन अपनी मांग को लेकर राजनेताओं की उदासीनता को देखते हुए अब उन्होंने खुद राजनीति में उतरने का फैसला किया है। मणिपुर की आयरन लेडी इरोम शर्मिला 9 अगस्त को अपना व्रत खत्म करेंगी। उनके अब तक के संघर्ष और नई रणनीति का जायजा ले रहे हैं के. सरोज कुमार शर्मा:
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अनशन से पॉलिटिक्स तक आयरन लेडी का सफर


सोशल ऐक्टिविस्ट इरोम शर्मिला चानू ने इस मंगलवार जब 16 साल पुराने अपने अनशन को खत्म करने का ऐलान किया तो कइयों को हैरानी हुई। उन्होंने न सिर्फ अपना व्रत खत्म करने का ऐलान किया बल्कि घर बसाने और अगले साल मणिपुर असेंबली के चुनाव लड़ना का भी ऐलान किया। मणिपुर की आयरन लेडी नाम से मशहूर 44 साल की शर्मिला ने अपने बॉयफ्रेंड इंडिया में जन्मे एक ब्रिटिश नागरिक के साथ शादी का भी फैसला किया है। गौरतलब है कि शर्मिला विवादित आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (अफस्पा) के खिलाफ पिछले 16 बरसों से भूख हड़ताल पर हैं।




10 साल पहले शुरू हुआ व्रत अफस्पा को खत्म करने की मांग को लेकर शर्मिला ने 5 नवंबर 2000 से भूख हड़ताल शुरू की। उन्होंने यह अनशन पश्चिमी इम्फाल के मालोम गांव में असम राइफल्स के सैनिकों द्वारा 10 नागरिकों की हत्या के विरोध में शुरू किया। मारे गए लोगों में एक राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार विजेता भी था। मंगलवार को इम्फाल कोर्ट के सामने हाजिरी के दौरान शर्मिला ने कहा कि वह 9 अगस्त को अपना व्रत खत्म कर देंगी और एक इंडिपेंडेंट उम्मीदवार के तौर पर विधानसभा चुनाव लड़ेंगी। बहुत सारे सोशल ऐक्टिविस्ट और नेताओं ने उनके फैसले का स्वागत किया है। इस दौरान शर्मिला ने यह खेद भी जताया कि उन्हें अफस्पा के खिलाफ अपने इतने लंबे संघर्ष में पब्लिक और सिविल संस्थाओं का पूरा सहयोग नहीं मिला। वह कहती हैं, 'मेरे 16 साल के एंटी-मिलिट्री ऐक्ट कैंपेन को लेकर नेताओं ने जिस तरह उदासीनता दिखाई, उससे मैं नाखुश हूं। मेरे इतने लंबे संघर्ष का कोई असर नहीं हुआ। इसलिए मैंने अफस्पा के खिलाफ अपने मिशन की रणनीति में बदलाव का फैसला किया। मैं इस दमनकारी ऐक्ट को हटवाने की मांग को मुख्य मुद्दा बनाते हुए चुनाव लड़ूंगी। मैं अपने इतने लंबे समय से चली आ रही मांग को अपने जीते जी पूरा होते हुए देखना चाहती हूं। मेरी नई रणनीति मजबूत लोकतांत्रिक ताकत को सही इस्तेमाल करने की है।'

9 अगस्त को टूटेगा व्रत शर्मिला के केस की अगली सुनवाई के लिए इम्फाल वेस्ट के चीफ जूडिशल मैजिस्ट्रेट ने 9 अगस्त की तारीख मुकर्रर की है। उसी दिन शर्मिला ने अपना व्रत तोड़ने का ऐलान किया है। शर्मिला को फिलहाल राज्य सरकार के जवाहर लाल नेहरू इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में नाक के जरिए जबरन लिक्विड फूड दिया जाता है। यह हॉस्पिटल पूर्वी इम्फाल के कोंगपाल कोंगखाम लेकाई स्थित उनके घर के पास ही है।

पुलिस ने शर्मिला के खिलाफ आईपीसी की धारा 309 (खुदकुशी की कोशिश) के तहत केस दर्ज किया हुआ है। हालांकि वह कहती हैं कि मैं जान देने की कोशिश नहीं कर रही, बस मिलिस्ट्री ऐक्ट का विरोध कर रही हूं। यह कानून सैन्य बलों को असीम पावर देते हुए महज संदेह के बल पर लोगों को गोली मारने तक की छूट देता है। जुलाई 2004 में असम राइफल्स द्वारा थांगजाम मनोरम देवी की हत्या के बाद पनपे असंतोष के बाद राज्य सरकार ने इम्फाल म्युनिसिपल इलाकों के तहत 7 विधानसभाओं से अफस्पा हटा लिया।

शर्मिला कहती रही हैं कि जब तक अफस्पा को हटाया नहीं जाएगा, उनका व्रत जारी रहेगा। आत्महत्या की कोशिश के तहत एक साल की कैद की सजा का प्रावधान है। कोर्ट एक साल के बाद उन्हें हर साल रिहा करता रहा है लेकिन वह 16 साल से अपना व्रत जारी रखे हुए हैं इसलिए उन्हें हर बार फिर से गिरफ्तार कर जूडिशल कस्टडी में भेज दिया जाता है। अक्टूबर 2006 में शर्मिला ने अपने विरोध को नई दिल्ली में शिफ्ट किया ताकि केंद्रीय नेताओं का ध्यान आकर्षित किया जा सके। इसके बाद दिल्ली सरकार ने उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 309 के तहत केस दर्ज कर दिया। यह केस अब भी दिल्ली की एक अदालत में पेंडिंग है।



मिशन वही, तरीका नया इम्फाल के 'ह्यूमन राइट्स अलर्ट' (एचआरए) के इग्जेक्युटिव डायरेक्टर बबलू लोइतोंगबाम के मुताबिक शर्मिला का यह फैसला बेशक चौंकाने वाला है लेकिन यह उनके लंबे संघर्ष के लिए काफी असरदार साबित हो सकता है। बबलू ने कहा, 'मैं यह सुनकर थोड़ा हैरान हुआ। वह पिछले 16 बरसों से व्रत पर पर हैं। इतने लंबे संघर्ष के बाद भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। व्रत खत्म कर चुनाव लड़ने का फैसला भी उनका अपना है। हम अफस्पा के खिलाफ उनके कैंपेन में हमेशा सहयोगी रहे। अब अगर वह सिर्फ आर्म्स एक्ट को हटाने की मांग को आधार बनाकर चुनाव लड़ेंगी तो हम पूरी तरह उनके साथ हैं।'

बबलू के मुताबिक, शर्मिला के रिहा होने से पहले या बाद में हम साथ बैठकर चुनाव लड़ने की आगे की स्ट्रैटिजी तय करेंगे। अगर वह सिर्फ इस निर्दयी कानून को आधार बनाकर चुनाव लड़ेंगी तो उन्हें हमारा पूरा सपोर्ट मिलेगा। 'जस्ट पीस फाउंडेशन' के ट्रस्टी क्षेत्रिमायुम ओनिल का भी कुछ ऐसा ही कहना है। वह कहते हैं कि शर्मिला का यह फैसला अफस्पा के खिलाफ लड़ाई खत्म होने जैसा नहीं है, बल्कि उन्होंने सिर्फ स्ट्रैटिजी में बदलाव में किया है। अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने वाले कई संगठनों ने शर्मिला के संघर्ष में साथ देने के लिए 'जस्ट पीस फाउंडेशन' बनाया है। ओनिल का कहना है कि शर्मिला के फैसले से थोड़ी हैरानी हुई है लेकिन हम चुनाव में भी उनके साथ खड़े रहेंगे। 'द सेव शर्मिला सॉलिडेरिटी कैंपेन' ने शर्मिला के नए कदम का स्वागत करते हुए कहा है कि पिछले 16 बरसों से सरकार ने जो उनकी (शर्मिला) अनदेखी की है, उसके खिलाफ यह बिल्कुल सही फैसला है।

सत्ताधीन कांग्रेस पार्टी के एमएलए और प्रवक्ता एन. बिरेन सिंह ने शर्मिला के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि इससे उनके पास अपनी लड़ाई लड़ने के लिए ज्यादा ताकत होगी। किसी भी मसले के लिए राजनीतिक लड़ाई लड़ना एक बड़ा और मजबूत फैसला है।

एमनेस्टी इंटरनैशनल इंडिया के प्रोजेक्ट मैनेजर अरिजित सेन का कहना है कि व्रत खत्म करने के शर्मिला के व्यक्तिगत फैसले से अफस्पा के खिलाफ उनके संघर्ष को एक नई राह मिलेगी। यह फैसला ऐसे वक्त पर आया है, जब सुप्रीम कोर्ट ने पिछले 2 दशकों में मणिपुर में 1528 कथित न्यायेतर मौतों की जांच का आदेश दिया है। अब सरकार को अफस्पा हटाने के लिए काम करना चाहिए।

चुप है परिवार हैरानी की बात है कि शर्मिला के परिवार ने इस फैसले पर कोई भी प्रक्रिया देने से इनकार कर दिया है। उनके बड़े भाई इरोम सिंहजित का कहना है कि वह लोगों की प्रतिक्रिया जानने के बाद ही कोई कॉमेंट करेंगे। सिंहजित एक प्रमुख एनजीओ की नौकरी छोड़कर पिछले 16 बरसों से इस लड़ाई में शर्मिला के साथ हैं। वह शर्मिला का साथ देने के लिए बनाए गए संगठन 'जस्ट पीस फाउंडेशन' में अहम पद पर भी हैं।

भावुक होते हुए सिंघजित ने कहा, 'शर्मिला ने जैसे ही अपना फैसला सुनाया, मुझे देश भर से तमाम सोशल ऐक्टिविस्ट और जर्नलिस्ट के फोन आने लगे। लेकिन मैंने इस मसले पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया।' उनका कहना है कि मुझे इस फैसले की पहले से कोई जानकारी नहीं थी इसलिए सुनकर हैरानी हुई।' सिंहजित इससे पहले ब्रिटिश नागरिक डेसमंड कॉउतिन्हो के साथ शर्मिला के रिश्ते को लेकर नाराजगी जता चुके हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि डेसमंड शर्मिला के संघर्ष का मजाक बनाना चाहते हैं। शर्मिला की मां सखी देवी समेत बाकी परिजन भी इस फैसले पर चुप हैं। सखी देवी का सिर्फ एक ही सपना है। वह चाहती हैं कि उनकी बेटी (शर्मिला) अपने मिशन (अफस्पा हटाने) को पूरा करके घर लौटे।

5 नवंबर 2000 को शर्मिला ने मां का आर्शीवाद लेकर घर छोड़ा था ताकि वह बिना किसी डर के अपना मिशन पूरा कर सकें और जीत के बाद घर वापसी करें। शर्मिला के मिशन का साथ निभाने के लिए परिवार ने मणिपुरी महिलाओं के सबसे बड़े फेस्टिवल 'निंगोल चाकोबा' से 2000 से ही दूरी बनाए रखी है। परिवार ने 16 बरसों से यह त्योहार नहीं मनाया है।

नेताओं से निराश 2013 में शर्मिला ने राज्य के निर्वाचित नेताओं को लताड़ा था कि वे अफस्पा एक्ट को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव नहीं बना पा रहे हैं। उन्होंने कहा था कि मणिपुर में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जैसे नेता की जरूरत है। अब्दुल्ला अफस्पा के खिलाफ हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से इस निर्दयी कानून को हटाने की मांग की है। हमें अपने राज्य में भी उमर अब्दुल्ला जैसा दृढ़ फैसले लेनेवाला सीएम चाहिए।

2014 में शर्मिला ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की कोशिश की थी ताकि वह खुद उनके अफस्पा को हटाने की गुजारिश कर सकें लेकिन मुलाकात हो न सकी। राजधानी दिल्ली में एक अदालत में पेशी के दौरान उन्होंने कहा था, 'भारत को एक दिशा देने के लिए लगता है कि प्रधानमंत्री ने कुछ पॉलिसी बनाई हैं। अफस्पा को हटाना भी उनकी प्राथमिकताओं में होना चाहिए।'



एक दूसरा पहलू भी इस ऐक्ट के खिलाफ संघर्ष करने के अलावा शर्मिला एक और काम शिद्दत से कर रही हैं। शर्मिला चाहती हैं कि लोग किताबें पढ़ें। इसके लिए वह स्टेट सेंट्रल लाइब्रेरी में लगातार किताबें दान करती रहती हैं। वह अब तक लाइब्रेरी में 400 दान कर चुकी हैं। इनमें से ज्यादातर किताबें उनके फैन्स और चाहनेवालों ने दी हैं। इनमें सोशल एक्टिविस्ट, सिविल लीडर, एजुकेशनिस्ट आदि शामिल हैं। वह सामाजिक और राजनीतिक मसलों पर कई कविताएं भी लिख चुकी है। शर्मिला ने बताया, 'मैं जैसे ही एक किताब को पढ़ कर खत्म करती हूं, मेरी कोशिश होती है कि ज्यादा-से-ज्यादा लोग उसे पढ़ें। इसके लिए मैं लगातार किताबें लाइब्रेरी में डोनेट करती रहती हूं।' वह कहती हैं कि किताबें पढ़ने के कल्चर को खूब बढ़ावा दिया जाना चाहिए। शर्मिला पर एक डॉक्युमेंटरी 'द साइलेंट पोयट' भी बन चुकी है और इसे नैशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिल चुका है। नैशनल और इंटनैशनल ग्रुप्स से उन्हें जो पैसा मिलता है, उसमें से वह सहयोगी समूहों को भी देती रहती हैं। 4 लाख रुपये वह इंटरनैशनल रेड क्रॉस सोसायटी को और 45 हजार ऑल मणिपुर रिक्शा ड्राइवर्स एंड पुलर्स असोसिएशन को दे चुकी हैं।

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