पटना
बिहार में कोरोना टेरर बन गया है। इसकी सबसे बड़ी वजह है मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी। बजट में बिल्डिंग पर बिल्डिंग बनाने की बात कही जाती है। मगर उसमें काम करनेवालों पर बात नहीं होती है। डॉक्टर और नर्स ठेके पर बहाल होते हैं। डॉक्टरों के कुल 11 हजार 645 स्वीकृत पदों में से 8 हजार 768 पद खाली पड़े हैं। जबकि 75% नर्सिंग स्टाफ की कमी है।
कोरोना से क्यों हांफ रही बिहार सरकार?
बिहार के सरकारी अस्पताल हांफ रहे हैं। जब अस्पताल हांफ रहे हैं तो सरकार के दम फूल रहे हैं। पूरा स्वास्थ्य महकमा काम की बेझ तले दबा हुआ है। मेडिकल स्टाफ मरीजों को देखकर उब चुके हैं। कोरोना ने जीना हराम कर दिया है। अस्पताल से श्मशान तक कहीं भी चैन नहीं है। बीमारी तो बीमारी है, उसका काम ही है सुख-चैन छिन लेना। मगर जब उससे निपटने की तैयारी न हो तो मुश्किलें और बढ़ जाती है।
बिहार सरकार ने सालभर पहले आए कोरोना से कुछ भी नहीं सीखा। कोई तैयारी नहीं की। अब जब मरीज बढ़ने लगे तो रोजाना बेडों की संख्या बढ़ाई जा रही है। सरकार सैकड़े में बेड बढ़ाने की तैयारी करती नहीं कि मरीजों की संख्या हजार में बढ़ जाती है। इसकी सबसे बड़ी वजह है बिहार सरकार अस्पतालों की बिल्डिंग बनाने के लिए फंड एलॉट करती है। मगर बिल्डिंग के अंदर के मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर को दुरुस्त करने के लिए कोई योजना नहीं बनाती है। डॉक्टर से लेकर नर्स और क्लर्क से लेकर पोछा मारने तक के स्टाफ को ठेका पर बहाल करती है। ठेका काम तो 'ठेका' का ही होगा। बिहार सरकार ने सालभर में कोई तैयारी नहीं की
अचानक कोरोना मरीजों के इजाफे ने सरकार के सभी कामों को रोक दिया है। सरकार के पास सिर्फ और सिर्फ एक ही काम है, कोरोना मरीजों को बेहतर सुविधाएं मुहैया कराना। मगर जरूरत के हिसाब से चीजें पूरी नहीं पड़ रही। इसकी सबसे बड़ी वजह है प्लानिंग। सरकार ने एक साल में कोरोना पेशेंट के इलाज के लिए खुद को तैयार ही नहीं किया। एक ही अस्पताल में कोरोना से लेकर कैंसर तक का इलाज चल रहा है। जिनको अब तक अस्पताल नहीं जाना पड़ा वो खुशनसीब हैं। कोशिश कीजिए की आपकी खुशनसीबी बची रहे।
स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव प्रत्यय अमृत पटना के अस्पतलों में बेड बढ़ाने के गुणा-गणित में लगे रहते हैं। पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में अभी 80 बेड कोरोना संक्रमितों के इलाज के लिए रिजर्व है। यहां 40 बेड और बढ़ाए जाएंगे। जबकि पटना एम्स में 30 अतिरिक्त बेड बढ़ाने के निर्देश दिए गए हैं। 15 अप्रैल से आईजीआईएमएस में भी 50 बेड बढ़ जाएंगे। नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भी 40 बेड बढ़ाने के निर्देश दिए गए। ऐसे ही एसकेएमसीएच मुजफफरपुर और जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज अस्पताल भागलपुर में भी कोरोना संक्रमितों के इलाज के लिए आवश्यकता के अनुसार बेड बढ़ाने के निर्देश दिए गए हैं। मगर सैकड़े के हिसाब से बेड बढ़ रहे हैं, हजारों में मरीज मिल रहे हैं। सारे के सारे इंतजाम नाकाफी हो जाते हैं।
चुनाव से पहले 77 स्वास्थ्य योजनाओं का उद्घाटन
2020 बिहार विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 22 सितंबर को 2 हजार 814 करोड़ के 77 स्वास्थ्य योजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया था। इसमें तकरीबन सभी की सभी योजनाएं बिल्डिंग से जुड़ी हुई थी। इससे पहले नीतीश कुमार ने मुजफ्फरपुर में शिशु गहन चिकित्सा इकाई (पीकू) का उद्घाटन किया था। मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार से जूझ से बच्चों के लिए ये जरूरी था। नीतीश कुमार अक्सर कहा करते हैं कि 2006 से पहले बिहार में अस्पताल तो थे मगर इलाज नहीं होता था। अब लोग अस्पताल आने लगे तो हॉस्पिटल और डॉक्टर हांफ रहे हैं क्योंकि अस्पताल के भीतर का मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर भीड़ के हिसाब से न के बराबर है।
स्वास्थ्य का 90% से ज्यादा बजट बिल्डिंग के लिए
साल 2021-22 में स्वास्थ्य विभाग को 13,264 करोड़ रुपए का बजट एलॉट किया गया है। जिसमें से 6,900 करोड़ योजनाओं पर खर्च किए जाएंगे, जबकि 6,300 करोड़ स्वास्थ्य संबंधी निर्माण कार्यों में इस्तेमाल होगा। बजट में ऐसे अहम क्षेत्रों को अनदेखा किया गया है, जिन्हें इस राशि की ज्यादा जरूरत है। मसलन डॉक्टरों की भर्ती, दवाओं की आपूर्ति और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करना शामिल है। मतलब जो बजट एलॉट किया गया है उससे कोरोना को हराना मुश्किल है।
स्वास्थ्य बजट में से वेतन और दूसरे जरूरी खर्च को घटा दिया जाय तो योजनाओं को लागू करने के लिए सरकार ने 6,927 करोड़ की ही राशि आवंटित की है। इनमें से लगभग 6 हजार करोड़ सिर्फ भवन और निर्माण पर खर्च होंगे। इलाज और दवाओं के मद में और मैन पावर बढ़ाने के काम के लिए सिर्फ रुपये 927 करोड़ बचते हैं।
बिहार में डॉक्टरों के 75% से ज्यादा पद खाली
2019 में बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि डॉक्टरों के 57% पद खाली हैं। नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों के भी 75% पद रिक्त है। पिछले साल कोरोना महामारी के वक्त 16 मई 2020 को बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने पटना उच्च न्यायालय को बताया था कि राज्य में डॉक्टरों के कुल 11 हजार 645 स्वीकृत पदों में से 8 हजार 768 पद खाली पड़े हैं। इन 8 हजार 768 खाली पड़े पदों में से 5 हजार 600 पद ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। पिछले दो साल में पेश किए गए इस आंकड़े से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्दशा क्यों है? कोरोना से ज्यादा मैन पावर की बीमारी से स्वास्थ्य महकमा जूझ रहा है।
हेल्थ सिस्टम को लेकर सरकार का फोकस सही नहीं
पूरे बजट में बिल्डिंग पर बिल्डिंग बनाने की बात है, मैनपावर बढ़ाने का जिक्र तक नहीं है। बजट में मैनपावर बढ़ाने के नाम पर 1 हजार 539 फार्मासिस्टों, 163 ईसीजी टेक्नीशियन और 1 हजार 96 ओटी सहायक की नियुक्ति की बात जरूर कही गई थी। मगर डॉक्टरों और नर्सों के खाली पड़े पदों को भरने के बारे में कोई बात नहीं की गई। राज्य में कुल 11 हजार 875 सरकारी अस्पताल हैं, इनमें से 9 हजार 949 पंचायत स्तरीय स्वास्थ्य उपकेंद्र हैं, जिनका जिम्मा नर्सों पर होता है। बाकी 2 हजार 26 अस्पतालों की बात की जाए, तो इनमें से ज्यादातर एक डॉक्टर और एक या दो नर्सों के भरोसे चलते हैं। जबकि 2020-21 के आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि राज्य के हर अस्पताल में औसतन 308 ओपीडी मरीज पहुंचते और 55 भर्ती होते हैं।
हर 30 हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और वहां चार डॉक्टरों के होने का नियम है। तीन साल पहले सरकार प्रति व्यक्ति सिर्फ 14 रुपए दवाओं पर खर्च कर रही थी। बिहार के सिर्फ 18% लोग ही सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने जाते हैं। नीति आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में बिहार सरकार की बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं को उजागर किया था। इसके बावजूद सरकार का फोकस सही नहीं है।
बिहार में कोरोना टेरर बन गया है। इसकी सबसे बड़ी वजह है मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी। बजट में बिल्डिंग पर बिल्डिंग बनाने की बात कही जाती है। मगर उसमें काम करनेवालों पर बात नहीं होती है। डॉक्टर और नर्स ठेके पर बहाल होते हैं। डॉक्टरों के कुल 11 हजार 645 स्वीकृत पदों में से 8 हजार 768 पद खाली पड़े हैं। जबकि 75% नर्सिंग स्टाफ की कमी है।
कोरोना से क्यों हांफ रही बिहार सरकार?
बिहार के सरकारी अस्पताल हांफ रहे हैं। जब अस्पताल हांफ रहे हैं तो सरकार के दम फूल रहे हैं। पूरा स्वास्थ्य महकमा काम की बेझ तले दबा हुआ है। मेडिकल स्टाफ मरीजों को देखकर उब चुके हैं। कोरोना ने जीना हराम कर दिया है। अस्पताल से श्मशान तक कहीं भी चैन नहीं है। बीमारी तो बीमारी है, उसका काम ही है सुख-चैन छिन लेना। मगर जब उससे निपटने की तैयारी न हो तो मुश्किलें और बढ़ जाती है।
बिहार सरकार ने सालभर पहले आए कोरोना से कुछ भी नहीं सीखा। कोई तैयारी नहीं की। अब जब मरीज बढ़ने लगे तो रोजाना बेडों की संख्या बढ़ाई जा रही है। सरकार सैकड़े में बेड बढ़ाने की तैयारी करती नहीं कि मरीजों की संख्या हजार में बढ़ जाती है। इसकी सबसे बड़ी वजह है बिहार सरकार अस्पतालों की बिल्डिंग बनाने के लिए फंड एलॉट करती है। मगर बिल्डिंग के अंदर के मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर को दुरुस्त करने के लिए कोई योजना नहीं बनाती है। डॉक्टर से लेकर नर्स और क्लर्क से लेकर पोछा मारने तक के स्टाफ को ठेका पर बहाल करती है। ठेका काम तो 'ठेका' का ही होगा।
अचानक कोरोना मरीजों के इजाफे ने सरकार के सभी कामों को रोक दिया है। सरकार के पास सिर्फ और सिर्फ एक ही काम है, कोरोना मरीजों को बेहतर सुविधाएं मुहैया कराना। मगर जरूरत के हिसाब से चीजें पूरी नहीं पड़ रही। इसकी सबसे बड़ी वजह है प्लानिंग। सरकार ने एक साल में कोरोना पेशेंट के इलाज के लिए खुद को तैयार ही नहीं किया। एक ही अस्पताल में कोरोना से लेकर कैंसर तक का इलाज चल रहा है। जिनको अब तक अस्पताल नहीं जाना पड़ा वो खुशनसीब हैं। कोशिश कीजिए की आपकी खुशनसीबी बची रहे।
स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव प्रत्यय अमृत पटना के अस्पतलों में बेड बढ़ाने के गुणा-गणित में लगे रहते हैं। पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में अभी 80 बेड कोरोना संक्रमितों के इलाज के लिए रिजर्व है। यहां 40 बेड और बढ़ाए जाएंगे। जबकि पटना एम्स में 30 अतिरिक्त बेड बढ़ाने के निर्देश दिए गए हैं। 15 अप्रैल से आईजीआईएमएस में भी 50 बेड बढ़ जाएंगे। नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भी 40 बेड बढ़ाने के निर्देश दिए गए। ऐसे ही एसकेएमसीएच मुजफफरपुर और जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज अस्पताल भागलपुर में भी कोरोना संक्रमितों के इलाज के लिए आवश्यकता के अनुसार बेड बढ़ाने के निर्देश दिए गए हैं। मगर सैकड़े के हिसाब से बेड बढ़ रहे हैं, हजारों में मरीज मिल रहे हैं। सारे के सारे इंतजाम नाकाफी हो जाते हैं।
चुनाव से पहले 77 स्वास्थ्य योजनाओं का उद्घाटन
2020 बिहार विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 22 सितंबर को 2 हजार 814 करोड़ के 77 स्वास्थ्य योजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया था। इसमें तकरीबन सभी की सभी योजनाएं बिल्डिंग से जुड़ी हुई थी। इससे पहले नीतीश कुमार ने मुजफ्फरपुर में शिशु गहन चिकित्सा इकाई (पीकू) का उद्घाटन किया था। मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार से जूझ से बच्चों के लिए ये जरूरी था। नीतीश कुमार अक्सर कहा करते हैं कि 2006 से पहले बिहार में अस्पताल तो थे मगर इलाज नहीं होता था। अब लोग अस्पताल आने लगे तो हॉस्पिटल और डॉक्टर हांफ रहे हैं क्योंकि अस्पताल के भीतर का मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर भीड़ के हिसाब से न के बराबर है।
स्वास्थ्य का 90% से ज्यादा बजट बिल्डिंग के लिए
साल 2021-22 में स्वास्थ्य विभाग को 13,264 करोड़ रुपए का बजट एलॉट किया गया है। जिसमें से 6,900 करोड़ योजनाओं पर खर्च किए जाएंगे, जबकि 6,300 करोड़ स्वास्थ्य संबंधी निर्माण कार्यों में इस्तेमाल होगा। बजट में ऐसे अहम क्षेत्रों को अनदेखा किया गया है, जिन्हें इस राशि की ज्यादा जरूरत है। मसलन डॉक्टरों की भर्ती, दवाओं की आपूर्ति और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करना शामिल है। मतलब जो बजट एलॉट किया गया है उससे कोरोना को हराना मुश्किल है।
स्वास्थ्य बजट में से वेतन और दूसरे जरूरी खर्च को घटा दिया जाय तो योजनाओं को लागू करने के लिए सरकार ने 6,927 करोड़ की ही राशि आवंटित की है। इनमें से लगभग 6 हजार करोड़ सिर्फ भवन और निर्माण पर खर्च होंगे। इलाज और दवाओं के मद में और मैन पावर बढ़ाने के काम के लिए सिर्फ रुपये 927 करोड़ बचते हैं।
बिहार में डॉक्टरों के 75% से ज्यादा पद खाली
2019 में बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि डॉक्टरों के 57% पद खाली हैं। नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों के भी 75% पद रिक्त है। पिछले साल कोरोना महामारी के वक्त 16 मई 2020 को बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने पटना उच्च न्यायालय को बताया था कि राज्य में डॉक्टरों के कुल 11 हजार 645 स्वीकृत पदों में से 8 हजार 768 पद खाली पड़े हैं। इन 8 हजार 768 खाली पड़े पदों में से 5 हजार 600 पद ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। पिछले दो साल में पेश किए गए इस आंकड़े से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्दशा क्यों है? कोरोना से ज्यादा मैन पावर की बीमारी से स्वास्थ्य महकमा जूझ रहा है।
हेल्थ सिस्टम को लेकर सरकार का फोकस सही नहीं
पूरे बजट में बिल्डिंग पर बिल्डिंग बनाने की बात है, मैनपावर बढ़ाने का जिक्र तक नहीं है। बजट में मैनपावर बढ़ाने के नाम पर 1 हजार 539 फार्मासिस्टों, 163 ईसीजी टेक्नीशियन और 1 हजार 96 ओटी सहायक की नियुक्ति की बात जरूर कही गई थी। मगर डॉक्टरों और नर्सों के खाली पड़े पदों को भरने के बारे में कोई बात नहीं की गई। राज्य में कुल 11 हजार 875 सरकारी अस्पताल हैं, इनमें से 9 हजार 949 पंचायत स्तरीय स्वास्थ्य उपकेंद्र हैं, जिनका जिम्मा नर्सों पर होता है। बाकी 2 हजार 26 अस्पतालों की बात की जाए, तो इनमें से ज्यादातर एक डॉक्टर और एक या दो नर्सों के भरोसे चलते हैं। जबकि 2020-21 के आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि राज्य के हर अस्पताल में औसतन 308 ओपीडी मरीज पहुंचते और 55 भर्ती होते हैं।
हर 30 हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और वहां चार डॉक्टरों के होने का नियम है। तीन साल पहले सरकार प्रति व्यक्ति सिर्फ 14 रुपए दवाओं पर खर्च कर रही थी। बिहार के सिर्फ 18% लोग ही सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने जाते हैं। नीति आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में बिहार सरकार की बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं को उजागर किया था। इसके बावजूद सरकार का फोकस सही नहीं है।