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Azamgarh News: बापू पर बड़े-बड़े दावे करने वाले ही भूले उनका चरखा, बंद हो गए कताई केंद्र

स्वदेशी का नारा दिया जा रहा है और खादी के विकास के लिए बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं लेकिन 90 के दशक में स्थापित कताई केंद्र व धागा उत्पत्ति केंद्र सरकारों की लापरवाही के कारण अपना अस्तित्व खो चुके है। कताई केंद्र या तो आवारा पशुओं का आश्रय स्थल बन गया है अथवा भवन को दूसरे काम में उपयोग किया जा रहा है।

Lipi 2 Jan 2021, 7:10 pm
आजमगढ़
नवभारतटाइम्स.कॉम बदहाल चरखा कताई केंद्र
बदहाल चरखा कताई केंद्र

खादी और चरखे का रिश्ता आजादी की लड़ाई से भी है, लेकिन बदलते समय के साथ खादी उपेक्षा की शिकार हो चली है। खादी के प्रचार-प्रसार के लिए खोले गए कताई केंद्र बंद हो गए और उसी के साथ बापू की याद दिलाने वाले चरखे भी थम गए। नतीजा कताई, बुनाई और रंगाई कार्य से जुड़े सैकड़ों लोगों की रोजी-रोटी भी छिन गई। अखिल भारतीय खादी ग्रामोद्योग की तरफ से संचालित चरखा कताई केंद्रों को पुनर्जीवित करने की भी कोई योजना फिलहाल विभाग के पास नहीं है।

आजमगढ़ में बीस चरखा कताई केंद्रों की स्थापना 90 के दशक में की गई थी। यह केंद्र दो उत्पत्ति केंद्रों के अधीन काम करते थे। अतरौलिया स्थित उत्पत्ति केंद्र से सगड़ी, फूलपुर व बूढनपुर तहसील क्षेत्रों में 55 गांधी आश्रम व 15 कताई केंद्र संचालित होते थे। राहुल नगर स्थित उत्पत्ति केंद्र से सदर और मेंहनगर तहसील क्षेत्रों में 50 गांधी आश्रम और 5 चरखा कताई केंद्रों का संचालन होता था। इन केंद्रों में कताई का काम करने वालों को 30 से 40 रुपये प्रति किलो की दर से मजदूरी मिल जाती थी। इस प्रकार अगर दिन भर में दस किलो रूई की कताई हो गयी तो 3 से 4 सौ रुपये की आमदनी हो जाती थी। फिर उस धागे की बुनाई करने वाले बुनकरों को भी रोजगार अपने ही क्षेत्र में मिल जाता था। धागों की रंगाई के काम में भी सैकड़ों लोगों को रोटी मिल जाया करती थी लेकिन कताई केंद्रों के बंद होने के बाद सबकी रोटी छिन गई।

रंगाई से भी मिलता था रोजगार
उदाहरण के तौर पर तहबरपुर स्थित न्यू माडल अम्बर चरखा कताई केंद्र को ही लें तो इसका उद्घाटन 4 जून, 1988 को स्वतंत्रता सेनानी एवं सांसद रहे बाबू शिवराम ने की थी। कताई केंद्र का मकसद यह रहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में जहां खादी का प्रचार-प्रसार होगा वहीं क्षेत्रीय बेरोजगारों को अपने ही क्षेत्र में रोजगार भी मिल जायेगा, लेकिन वह मकसद पूरा नहीं हो सका। इस केंद्र पर तीस बड़े चरखे चलते थे तो दर्जनों ग्रामीण अपने घरों पर छोटे चरखों पर कताई करते थे। इस केंद्र से बने धागों की बुनाई महराजगंज कस्बे के पंद्रह बुनकर करते थे। रंगाई के काम से भी दर्जनों लोगों को रोजगार मिलता था।

आवारा पशुओं की शरणस्‍थली बना केंद्र
करीब दो एकड़ भूमि पर बने इस केंद्र की दशा आज जर्जर हो चली है। देखरेख के अभाव में दरवाजे और खिड़कियां तक गायब हो चुकी हैं। पूरा केंद्र परिसर आवारा पशुओं की शरण स्थली बना है। केंद्र के व्यवस्थापक विजई बताते हैं कि सम्बन्धित अधिकारियों व खादी बोर्ड की उपेक्षा के चलते यह स्थिति आज उत्पन्न हुई है। कान्तिनों, बुनकरों का भुगतान व कच्चे माल की आपूर्ति न होने से केंद्र बन्द हो गया। इतना ही नहीं दुकान का किराया और खुद का वेतन भी समय से नहीं मिल पा रहा है जबकि खादी बिक्री केंद्र से आज भी एक सीजन में सात से बारह लाख तक की बिक्री हो जाती है।

बंद है सरकारी अनुदान: सचिव
उधर अतरौलिया उत्पत्ति केन्द्र के सचिव व राहुल नगर उत्पत्ति केंद्र के सचिव बताते हैं कि राज्य से 10 और केन्द्र से मिलने वाला 20 प्रतिशत अनुदान कई साल से नहीं मिल रहा है। इससे न तो कच्चा माल ही आ पा रहा है और ना ही कर्मचारियों की मजदूरी का भुगतान हो पा रहा है। यही सब कारण है कि चरखा कताई केन्द्र बन्द हो गये। मार्टीनगंज तहसील के सिकरौर कताई केंद्र तो यह दो दशक से बंद है। यहां के चरखे और अन्य सामान कहां गए बताने वाला कोई नहीं है। अब इस भवन में होमियोपैथिक अस्पताल चल रहा है। ऐसे तमाम केंद्र है जो उपेक्षा की भेंट चढ़ चुके है।

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