मनीष सिंह, मिर्जापुर
विश्व प्रसिद्ध मिजार्पुरी कजली के उत्सव पर विराम लगा है। इन दिनों जहां पूरे जनपद में लोकगीत कजरी के स्वर गुंजायमान रहते थे पर इस साल अजब का सन्नाटा सा फैला है। न तो झूले पड़े हैं, न ही गांव के मेले ही लग रहे हैं। न ही चौपाल पर महिलाओं का जमावड़ा हो रहा है। हर तरफ शांति पसरी है। वैसे तो पूरे बिंध्य क्षेत्र में आषाढ़ माह से ही कजली के स्वर गूंजने लगते थे और सावन की रिमझिम फुहारों के बीच गांव के चौपल पर महिलाओं द्वारा कजली गाने से एक अलग ही माहौल बन जाता था। कजली खेलने के लिए शादीशुदा युवतियों को विशेष रूप से मायके बुलाने की परंपरा अति प्राचीन रही है।
कोरोना के चलते लोकगीत कजरी भी हुई प्रभावित
कोरोना महामारी के चलते जहां लोगों की सुख-समृद्धि प्रभावित हो रही है तो दूसरी तरफ़ लोक-संस्कृति भी इससे अछूती नहीं है।
इस बार युवतियों को कोरोना के चलते मन मसोस कर रहना पड़ा है। महिलायें खुद अपने पति को सावन के मौसम में कजरी उत्सव में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया करती थी। महिलाओं के साथ यहां पुरुषों द्वारा गायन की परम्परा भी प्राचीन है।
कभी सजते थे अखाड़े
कजरी के लिये विशेष प्रतियोगिता भी होती थी, जिसमें कज्जाल न केवल अपना बल्कि अपने गुरु की प्रतिष्ठा को भी बढ़ाता था। आषाढ़ महीने के गुरु पूर्णिमा के साथ अखाड़े तैयार होने लगते थे।लेकिन इस बार न तो अखाड़े सज रहे हैं और ना ही उनकी रौनक।
विंध्यवासिनी के नाम पर हुई कजली गीत की उत्पत्ति
असल में कजली गीत की उत्पत्ति बिन्ध्य क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी मां बिन्ध्यवासिनी से माना जाती है। मां बिन्ध्यवासिनी देवी का एक नाम कज्जला भी है। यहां मान्यता है कि देवी के आराधना से शुरू हुआ लोकगीत कालान्तर में कजली बनी। मिजार्पुर के कजली का उत्सव पूरे देश में प्रसिद्ध है। वर्षा और कजली का सम्बन्ध ठीक वैसे ही है जैसा धरती और बादल का।
कोरोना के साथ आधुनिकता की दौड़ ने भी किया मोहभंग
लोकप्रिय कजली गायिका डॉ अजिता श्रीवास्तव कहती हैं की परम्परागत कजली जो महिलाएं आमतौर पर गाती हैं जिसे ढुनमुनिया कजली भी कहा जाता है। यह महिलाओं द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित है। संयोग और वियोग से पूर्ण श्रृंगार की रही है। मिजार्पुरी कजली अपनी विशेष राग के लिए जानी जाती है। जो आम कजली से अलग और विशिष्ट होती है। उन्होंने कहा की बाद में कजली के स्वरूप में काफी परिवर्तन आया है। अब सैकड़ों तरीके से कजली गायी जा रही है। टेलीविजन के इस युग में लोक संगीत भी अछूती नहीं रही है। बाजारवाद ने भी अपना प्रभाव दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है। वैसे भी आधुनिक कजली में हेरफेर की गुंजाइश बराबर बनी रहती है।
हर तरफ सन्नाटा ना झूले पड़े और ना सजे अखाड़े
बहरहाल कोरोना काल में बिन्ध्य क्षेत्र की लोक परम्परा पूरी तरह प्रभावित हुई है। वर्षा काल में सावनी फुहार तो है। चारों तरफ हरियाली की चादर भी बिछी है। पर न तो झूले पड़े हैं, न तो चौपल पर महिलाओं का झुंड ही है।
विश्व प्रसिद्ध मिजार्पुरी कजली के उत्सव पर विराम लगा है। इन दिनों जहां पूरे जनपद में लोकगीत कजरी के स्वर गुंजायमान रहते थे पर इस साल अजब का सन्नाटा सा फैला है। न तो झूले पड़े हैं, न ही गांव के मेले ही लग रहे हैं। न ही चौपाल पर महिलाओं का जमावड़ा हो रहा है। हर तरफ शांति पसरी है। वैसे तो पूरे बिंध्य क्षेत्र में आषाढ़ माह से ही कजली के स्वर गूंजने लगते थे और सावन की रिमझिम फुहारों के बीच गांव के चौपल पर महिलाओं द्वारा कजली गाने से एक अलग ही माहौल बन जाता था। कजली खेलने के लिए शादीशुदा युवतियों को विशेष रूप से मायके बुलाने की परंपरा अति प्राचीन रही है।
कोरोना के चलते लोकगीत कजरी भी हुई प्रभावित
कोरोना महामारी के चलते जहां लोगों की सुख-समृद्धि प्रभावित हो रही है तो दूसरी तरफ़ लोक-संस्कृति भी इससे अछूती नहीं है।
इस बार युवतियों को कोरोना के चलते मन मसोस कर रहना पड़ा है। महिलायें खुद अपने पति को सावन के मौसम में कजरी उत्सव में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया करती थी। महिलाओं के साथ यहां पुरुषों द्वारा गायन की परम्परा भी प्राचीन है।
कभी सजते थे अखाड़े
कजरी के लिये विशेष प्रतियोगिता भी होती थी, जिसमें कज्जाल न केवल अपना बल्कि अपने गुरु की प्रतिष्ठा को भी बढ़ाता था। आषाढ़ महीने के गुरु पूर्णिमा के साथ अखाड़े तैयार होने लगते थे।लेकिन इस बार न तो अखाड़े सज रहे हैं और ना ही उनकी रौनक।
विंध्यवासिनी के नाम पर हुई कजली गीत की उत्पत्ति
असल में कजली गीत की उत्पत्ति बिन्ध्य क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी मां बिन्ध्यवासिनी से माना जाती है। मां बिन्ध्यवासिनी देवी का एक नाम कज्जला भी है। यहां मान्यता है कि देवी के आराधना से शुरू हुआ लोकगीत कालान्तर में कजली बनी। मिजार्पुर के कजली का उत्सव पूरे देश में प्रसिद्ध है। वर्षा और कजली का सम्बन्ध ठीक वैसे ही है जैसा धरती और बादल का।
कोरोना के साथ आधुनिकता की दौड़ ने भी किया मोहभंग
लोकप्रिय कजली गायिका डॉ अजिता श्रीवास्तव कहती हैं की परम्परागत कजली जो महिलाएं आमतौर पर गाती हैं जिसे ढुनमुनिया कजली भी कहा जाता है। यह महिलाओं द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित है। संयोग और वियोग से पूर्ण श्रृंगार की रही है। मिजार्पुरी कजली अपनी विशेष राग के लिए जानी जाती है। जो आम कजली से अलग और विशिष्ट होती है। उन्होंने कहा की बाद में कजली के स्वरूप में काफी परिवर्तन आया है। अब सैकड़ों तरीके से कजली गायी जा रही है। टेलीविजन के इस युग में लोक संगीत भी अछूती नहीं रही है। बाजारवाद ने भी अपना प्रभाव दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है। वैसे भी आधुनिक कजली में हेरफेर की गुंजाइश बराबर बनी रहती है।
हर तरफ सन्नाटा ना झूले पड़े और ना सजे अखाड़े
बहरहाल कोरोना काल में बिन्ध्य क्षेत्र की लोक परम्परा पूरी तरह प्रभावित हुई है। वर्षा काल में सावनी फुहार तो है। चारों तरफ हरियाली की चादर भी बिछी है। पर न तो झूले पड़े हैं, न तो चौपल पर महिलाओं का झुंड ही है।