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मुहर्रमः जानें इसमें क्या और क्यों होता है?

आज मनाया जा रहा मुहर्रम का त्योहार इस्लामी साल का पहला महीना कहलाता है. जिसे उर्दू जबान में हिजरी कहा जाता है. इतना ही नहीं इस्लाम के चार पवित्र महीनों में इस महीने की अपनी अलग अहमियत होती है.

नवभारतटाइम्स.कॉम 2 Oct 2017, 10:52 am
आज मनाया जा रहा है मुहर्रम। इस्लामी साल का पहला महीना कहलाता है। जिसे उर्दू जबान में हिजरी कहा जाता है। इतना ही नहीं इस्लाम के चार पवित्र महीनों में इस महीने की अपनी अलग अहमियत होती है। दरअसल इराक में सन् 680 में यजीद नामक एक जालिम बादशाह हुआ करता था, जो इंसानियत का बड़ा दुश्मन था। जिसकी वजह से हजरत इमाम हुसैन ने जालिम बादशाह यजीद के विरुद्ध जंग का एलान कर दिया था।
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इसी जंग में मोहम्मद-ए-मुस्तफा के नाती हजरत इमाम हुसैन को कर्बला नामक जगह पर उनके परिवार और दोस्तों के साथ शहीद कर दिया गया था। तभी से मुहर्रम के दिन हुसैन और उनके परिवार की शहादत को याद किया जाने लगा है। हालांकि उस दिन लड़ी गई मजहबी जंग में जीत हुसैन की ही हुई थीं, मगर यजीद ने उनके साथ और उनके 72 साथियों को मौत के घाट उतार दिया था।

असल में जिस दिन हुसैन को शहीद किया गया वह मुहर्रम का ही महीना था और उस दिन 10 तारीख थी। जिसके बाद इस्लाम धर्म मानने वाले लोगों ने इस्लामी कैलेंडर का नया साल मनाना छोड़ दिया। मगर फिर बाद में मुहर्रम का महीना गम के महीने के तौर पर मनाया जाने लगा। हालांकि खुदा के बंदे हजरत मोहम्मद ने इस महीने को अल्लाह का महीना करार दिया है। जिसमें पूरे दस दिन तक मुहर्रम के रीति-रिवाजों को पूरी शिद्दत से अदा किया जाता है।

इस दिन शिया समुदाय के लोग काले कपड़े पहनते हैं, वहीं अगर बात करें मुस्लिम समाज के सुन्नी समुदाय की तो वह इस दिन तक रोजे में रहते हैं। दरअसल रमजान महीने के अलावा, मुहर्रम को सबसे पाक समय रोजे के लिए बताया जाता है। हजरत मोहम्मद के साथी इब्ने अब्बास के मुताबिक जिसने मुहर्रम के 9 दिन तक रोजा रखा, उसके दो साल के गुनाह माफ हो जाते हैं और मुहर्रम के एक रोजे का सबाब 30 रोजों के बराबर मिलता है।

इस तरह से दिलचस्प बात है कि मुहर्रम कोई त्योहार नहीं है, बल्कि यह तो मातम मनाने का दिन है। जिस दिन शहीद हुए अल्लाह के बंदों की रुह के सुकून की दुआ मांगी जाती है। इसके साथ ही हमें यह सीख भी मिलती है कि मजहब की राह पर चलकर अगर आपको शहादत भी मिले तो धर्म की राह पर कुर्बान होने से घबराना नहीं चाहिए। गौरतलब है कि जिस जगह हुसैन को शहीद किया गया था, वह इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर, उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा है।

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